उद्योगों और व्यापारों पर जलवायु परिवर्तन का बड़ा खतरा मंडरा

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उद्योगों और व्यापारों पर जलवायु परिवर्तन का बड़ा खतरा मंडरा रहा है और फिलहाल जब वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन कम करने की चर्चाएं गर्म हैं, एक नज़र भारत के उद्योग क्षेत्र पर डालनी चाहिए कि कैसे यह क्षेत्र बदलती जलवायु के प्रभावों को देखता है। दुनिया के बड़े कारोबार नेट जीरो होने की योजना बना रहे हैं, लेकिन नेट जीरो का मतलब यह नहीं कि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बंद हो जाएगा। नेट ज़ीरो का मतलब है कि हम वातावरण में नए उत्सर्जन नहीं जोड़ रहे हैं।

उत्सर्जन जारी रहेगा, लेकिन वायुमंडल से एक बराबर मात्रा को अवशोषित करके संतुलित किया जाएगा। पेरिस समझौता पूर्व-औद्योगिक युग के स्तरों से वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बनाए रखने के लिए कहता है। यदि हम जलवायु परिवर्तन का कारण बनने वाले उत्सर्जन को जारी रखते हैं तो तापमान इससे आगे बढ़ता रहेगा, जो कि खतरनाक है। यही कारण है कि कार्बन न्यूट्रल या ‘नेट जीरो’ पाने के लिए प्रतिबद्धता तेजी से एक ग्लोबल मुद्दा बन कर उभर रहा है।

भारत में महाराष्ट्र क्योंकि सबसे बड़ा वाणिज्यिक और औद्योगिक केंद्रों में से एक है, वहां नेट जीरो और जलवायु परिवर्तन के व्यापार पर प्रभावों को समझने के लिए किए गए मार्केट रिसर्च एजेंसी यूगॉव के एक सर्वे के मुताबिक, महाराष्ट्र के औद्योगिक क्षेत्र में शामिल 65% इकाइयां कारोबार को जलवायु परिवर्तन के खतरों से मुक्त करने को शीर्ष प्राथमिकताओं में रखती हैं। ज़्यादातर कंपनियों मानती हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण उनके सेक्टर और कारोबार पर ‘बहुत भारी असर’ पड़ा है।

प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कामगारों की सेहत पर असर का पहलू भी जलवायु परिवर्तन के प्रमुख प्रत्यक्ष प्रभाव के तौर पर उभरा है। भारी वर्षा, बाढ़, चक्रवात, साइक्लोन, असहज गर्मी और ऊपर चढ़ता पारा, पानी की किल्लत जैसी जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली नित नई दुश्वारियां न सिर्फ लोगों का जीना मुश्किल बनाती हैं, बल्कि कंपनियों की उत्पादकता भी कम कर देती हैं, जिससे उन्हें नुकसान होता है।

महाराष्ट्र के औद्योगिक क्षेत्र के 70% से भी ज्यादा हिस्से का मानना है कि जलवायु परिवर्तन वास्तविक मुद्दा है और MSME के मुकाबले बड़े उद्योगों में इस मसले को लेकर समझ ज्यादा गहरी है। काउंसिल फॉर एनर्जी एनवायरमेंट एंड वॉटर द्वारा हाल में किए गए अध्ययन के मुताबिक महाराष्ट्र के 80% से ज्यादा जिलों पर सूखे या अकाल जैसी परिस्थितियों का खतरा मंडरा रहा है।

वहीं, दूसरी ओर यह साफ जाहिर है कि परंपरागत रूप से सूखे की आशंका वाले दिनों में पिछले एक दशक के दौरान जबरदस्त बाढ़ और चक्रवात जैसी भीषण मौसमी स्थितियां भी देखी गई हैं। औरंगाबाद, मुंबई, नासिक, पुणे और ठाणे जैसे जिले जलवायु संबंधी एक छोटे विचलन के गवाह बन रहे हैं, जहां सूखी गर्मी जैसे वातावरणीय जोन पनपने के कारण चक्रवाती विक्षोभ की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है।

इसकी वजह से तूफान, अत्यधिक बारिश और बाढ़ की घटनाएं हुई हैं। पिछले 50 साल के दौरान महाराष्ट्र में जबरदस्त बाढ़ आने की घटनाओं में 6 गुना इजाफा हुआ है। ये रुझान इशारा करते हैं कि कैसे जलवायु संबंधी अप्रत्याशित घटनाएं बढ़ रही हैं, जिनकी वजह से जोखिम का आकलन करना और बड़ी चुनौती हो गई है।

इसमें शक नहीं है कि आगे आने वाले वक़्त में कारोबार जगत को उद्योगों की आपूर्ति शृंखला और निवेश पोर्टफोलियो के कारण उत्पन्न ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए सख्त नियम लागू करके कार्य संचालन को जोखिम मुक्त करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ना होगा। संभवत: यह दशक जलवायु परिवर्तन पर लगाम कसने के लिहाज से आखिरी दशक साबित हो सकता है। अब कंपनियों को कोरी बातें छोड़कर वास्तविक समाधान लागू करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा।

आरती खोसला
(लेखिका क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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