इतिहास के फड़फड़ाते पन्नों के आगोश में

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‘थ्री- नॉट-थ्री बहुमत है तो क्या हुआ? क्या बहुसंख्या के इस तकनीकी तर्क की आड़ में हम आज की ज़मीनी असलियत को दरकिनार कर सकते हैं? ठीक है कि चुनाव पांच बरस के लिए होते हैं और केंद्र की सरकार को अभी पूरे चार साल और रायसीना-पहाड़ी पर जमे रहने का गब्बराना-हक़ है, मगर दिल पर हाथ रख कर बताइए कि अगर आज आम चुनाव हो जाएं तो क्या नरेंद्र भाई मोदी उसी तरह दनदनाते हुए लोक कल्याण मार्ग पहुंच जाएंगे? फटे तलुए, भूखे पेट, बहती आंखों और सिर पर लदी घर-गृहस्थी के साथ लाखों की जो क़तार पांव-पांव अपने गांव पहुंची है, उसके बाद बहुमत की सारी दलीलें बेमानी हो गई हैं। ऐसे में अपने भीतर की नैतिकता के नयनजल की पुकार अगर कोई प्रधान-सेवक ईमानदारी से सुनता तो ख़ुद ही सेवा-निवृत्ति का मन बना लेता। अपने तकनीकी-बहुमत की डोर अपने ही किसी हमजोली के हवाले कर देता।

मगर ऐसा तब होता है, जब स्वस्फूर्त प्रजा किसी को अपना राजा चुनती है। तमाम प्रपंचों के बहेलिया-जाल बिछा कर जब समर्थन का बहुमत अपनी मुट्ठी में कसा जाता है तो मन की बात भी वैसी ही काइयां हो जाती है। मेरे हिसाब से तो नरेंद्र भाई ने मार्च के चौथे मंगलवार की उस रात ही भारत पर शासन करने का नीतिगत अधिकार खो दिया था, जब उन्होंने चार घंटे की पूर्व-सूचना पर लद्दाख से अंडमान और दिबांग से दमन तक फैली सवा अरब से ज़्यादा की आबादी को घरों में क़ैद हो जाने का हड़बड़-फ़रमान सुनाया था। तैंतीस करोड़ देवी-देवता, पता नहीं, हैं कि नहीं; पर तैंतीस लाख वर्ग किलोमीटर के मुल्क़ की हर गतिविधि को चुटकी बजाते 240 मिनट के भीतर समूचा ठप्प कर देने का करतब दिखाने वाले प्रधानमंत्री को जो पूजना चाहें, पूजें। लेकिन जिनमें ज़रा भी विवेक शेष है, वे तो गहरे सोच में डूबे बैठे हैं।

कहने वाले शुरू से कह रहे थे कि विषाणु-प्रबंधन की प्रक्रिया नीचे से ऊपर की तरफ़ संचालित होनी चाहिए, ऊपर से नीचे की तरफ़ नहीं। लेकिन हर बात की अनसुनी करने में ही जिनके पराक्रम-भाव को मालिश का सुख मिलता है, उनकी जड़-मति इतनी आसानी से सुजान हो जाए तो बात ही क्या है? सारे जहां का दर्द अपने ज़िगर में लिए घूम रहे नरेंद्र भाई को अंततः सब-कुछ स्थानीयता को सौंपना पड़ा, मगर तब तक उनके प्रयोगों ने देश की पूरी अर्थव्यवस्था का ऐसा बट्ठा बैठा दिया कि कम-से-कम पांच साल की मशक़्कत के बिना उसके कंकाल पर त्वचा नहीं पनपेगी। गाल गुलाबी होने में तो मालूम नहीं कितने बरस लग जाएं? हम उस देश के वासी बन गए हैं, जिसमें किसी क्षणभंगुर को नहीं, दस बड़े उद्योगपतियों में से एक को, असली मुद्दे उठा रहे एक विपक्षी सांसद से, वीडियो-विमर्श करने में एक बार तो सोचना ही पड़ जाता है।

सत्तारूढ़ दल के सांसद हमख़याल लोगों से तो अपने दिल की कसमसाहट बयां कर लेते हैं, मगर अपनी नेतृत्व-टुकड़ी के सामने टुकुर-टुकुर ही ताकते रहते हैं। राजमहल के अंतःपुर के भीतर-बाहर विदुर-आसंदियों पर बैठे अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक, सैन्य-महारथी, स्वास्थ्य-विशेषज्ञ और नौकरशाह बेज़ुबान बने हुए हैं। जन-जागरण के पुरोधा माने जाने वाले साहित्यकार, रंगकर्मी, कलाकार और पत्रकार क्लीव-वर्ग में शामिल हो गए हैं। आख़िर भारत की इस भयातुर स्थिति का ज़िम्मेदार कौन है? यह देश इतना डरा हुआ पहले तो कभी नहीं था! मैं जानता हूं कि कीर्तन-मंडली मुझ पर टूट पड़ेगी, मगर मैं मानता हूं कि यह दौर देश में एक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना का है। कम-से-कम तब तक के लिए, जब तक कि विषाणु का अनपेक्षित संकट काल अपनी विदाई के संकेत नहीं देता। बेहतर तो यह होगा कि सर्वसमावेशी राष्ट्रीय सरकार राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में बने।

नरेंद्र भाई को यह मंज़ूर न हो तो वे अपनी खड़ाऊं गड़करी न सही, अमित भाई शाह को ही सौंप दें। इसमें भी कोई दुविधा हो तो ताज मोहन भागवत के सिर पर रख दें। और, अगर सत्ता-मोहिनी के बिना जीया ही न जा रहा हो तो स्वयं ही शैया पर अंगड़ाइयां लेते रहें, मगर मेहरबानी कर के अपने लिए एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ही गठित कर लें। सभी प्रमुख राजनीतिक दलों, उद्योग-आर्थिक जगत और समाज-संस्कृति की अलग-अलग धाराओं के नुमाइंदों का सहयोग ले कर आज के आपद्-दौर का राजकाज चलाने में आख़िर ऐसा भी क्या खुर्रांट अनमनापन? जब हालात ख़ुद के संभाले न संभल रहे हों तो देश में मौजूद बौद्धिक संपदा के कौशल्य का उपयोग न करने की ज़िद में कौन-सी बुद्धिमानी है? लेकिन मैं जानता हूं कि नरेंद्र भाई ऐसा कभी नहीं करेंगे। इसलिए कि उन्हें इस बात का अहसास ही नहीं है कि इतिहास के पन्ने उन्हें भारत के एक ऐसे प्रधानमंत्री के तौर पर अपने आगोश में लेने को फड़फड़ा रहे हैं, जिसकी वज़ह से भारतमाता अपने फूटे कर्मों पर बरसों रोती रही।

बहुतों को लगता है कि नरेंद्र भाई के मुकाबले का चुनावी-रणबांकुरा फ़िलवक़्त भारत में दूर-दूर तक कोई नहीं है। हो सकता है कि वे सही हों। फिर भले ही मैं इस अवधारणा को न मानूं। मैं नरेंद्र भाई की लहीम-शहीम ताक़त का लोहा मानता हूं। मैं यह भी मानता हूं कि बिना ज़्यादा सोचे-समझे फ़ैसले लेने की उनमें अपार शक्ति है। मैं यह भी जानता हूं कि वे अभिवादन भले भूल जाएं, अवहेलना कभी नहीं भूलते हैं। लेकिन क्या मैं यह भी मान लूं कि सियासी-धरती इतनी बांझ हो गई है कि नरेंद्र भाई हमारे अंतिम इंद्र हैं? कितने हिंदुत्ववादियों ने मनुस्मृति पढ़ी है, कौन जाने? पढ़ी होती तो उसमें यह भी पढ़ा होता कि ‘अपि यत्सुकरं कर्म यदप्येकेन दुष्करम्; विशेषतोसहायेन किन्तु राज्यं महोदयम्’। अर्थ है कि जब ऐसा कोई भी काम जो आसान लगता है, अकेले करना संभव नहीं होता है तो फिर राज-संचालन जैसे दुरूह काम राजा अकेला कैसे कर सकता है? मगर यह आत्मकेंद्रित एकाधिकारवादी अधिपतियों का युग है। नरेंद्र भाई कोई अकेले नहीं हैं। तमाम राजनीतिक दलों पर निगाह डालिए और अपनी आंखें गड़ा कर उनके शिखर-नेतृत्व की कार्यशैली देखिए।

सामाजिक-अर्थिक संरचना के किसी भी कंगूरे पर नज़र डालिए। आपको लगेगा कि कहीं हर मीनार पर एक नरेंद्र भाई ही तो मौजूद नहीं है? बावजूद इसके वे नरेंद्र भाई, इन नरेंद्र भाई से इसलिए बेहतर हैं कि उनके नरेंद्र भाईपन में नैसर्गिक परंपराओं और शाश्वत नैतिक मूल्यों की अंतर्घारा अभी सूखी नहीं है। वे अमानुषिकता के उस मुहाने से अभी कोसों दूर हैं, जहां पहुंचने के बाद अपने अलावा कोई और बिलकुल ही दिखाई नहीं देता है। निर्दयता जिस सियासत का अभिन्न अंग बन चुकी हो, उसमें अगर दो-चार भी ऐसे नायक हमारे बीच हों, जिनके भरोसे हम-आप खुली हवा में सांस लेने लायक़ बने रहें तो अपनी अंजुरी के फूलों से हमें उनका स्वागत करना चाहिए। जो ऐसा नहीं करेंगे, वे कायिक, वाचिक और मानसिक पाप के भागी होंगे। यह समय तो गुज़र जाएगा। लेकिन आने वाला समय इसका हिसाब रखेगा कि एक विषाणु के बुर्के की ओट में तब कौन किस खेल में मशगूल था? वे कौन थे, जिन्होंने रोते-बिलखते लोगों की तरफ़ से मुंह फेर लिए थे? वे कौन थे, जिनकी सिर्फ़ जुबानें लंबी थीं और हाथ बहुत छोटे? और, वे कौन थे, जो अपने नन्हे पैरों की परवाह किए बिना संकट के पर्वतारोहियों के साथ-साथ चल पड़े थे?

पंकज शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राजनीति से जुड़े हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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