सुप्रीम कोर्ट ने ‘कान को इस हाथ से पकड़ो या उस हाथ से पकड़ो, पकड़ा तो कान ही जाएगा के सिद्धांत का सहारा लेकर किसान आंदोलन को खत्म करने का प्रयास किया है। सुप्रीम कोर्ट ने एक चार सदस्यीय समिति बना दी है और आंदोलनकारी किसानों को कमेटी के सामने अपना पक्ष रखने को कहा है। लेकिन किसानों ने यह कह दिया है कि वे समिति से कोई बात नहीं करेंगे और उन्हें कथित काले कृषि कानूनों को रद्द किये जाने के अतिरिक्त कोई सुझाव, कोई फैसला मंजूर नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल तीनों नये कृषि कानूनों को स्थगित कर दिया है, जिसे लोग किसानों की जीत और सरकार की हार के तौर पर देख रहे हैं। लेकिन यह सरकार की हार नहीं है बल्कि मामले को लटकाने का एक सफल प्रयास है। सुप्रीम कोर्ट की कमेटी को दो महीने में रिपोर्ट देनी है। इसका मतलब किसानों से केंद्र सरकार कोई बात नहीं करेगी, तब भी उस पर किसानों की उपेक्षा का आरोप नहीं लग सकेगा। किसान आंदोलन अगले दो महीने तक इसी जोश-खरोश के साथ जारी रह पाएगा, इसको लेकर लोगों के मन में संशय तो है। सुप्रीम कोर्ट ने जिस ‘विवाद निवारक समिति’ का गठन किया है, उसे आंदोलनकारी किसानों ने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से खारिज कर दिया है। किसानों का कहना है कि केंद्र सरकार अपनी जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट पर डालकर अपना पल्ला झाड़ रही है।
सरकार सुप्रीम कोर्ट के रास्ते इन कानूनों को लागू करने की कोशिश में है। आखिर ऐसा क्या है जिसके चलते किसान आंदोलनकारी कोर्ट कमेटी से बात तक करने को तैयार नहीं हैं। किसानों को शंका- आशंका क्यों है? किसानों की शंका- आशंका के पीछे समिति में शामिल किये गये सदस्य ही हैं। असल में समिति में जो चार लोग शामिल किये गये हैं, वो सभी किसान आंदोलन की शुरुआत के पहले से ही नये कृषि कानूनों के घोर हिमायती रहे हैं। ऐसे में किसानों को नहीं लगता है कि कमेटी उनकी बातों को सुनकर कोई न्यायपूर्ण सुझाव सुप्रीम कोर्ट को देगी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति में भारतीय किसान यूनियन के भूपिंदर सिंह मान, शेतकारी संगठन के अनिल घनवत, कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी और डॉ. प्रमोद कुमार जोशी शामिल हैं। भूपिंदर सिंह मान कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मुलाकात करके नये कृषि कानूनों का समर्थन कर चुके हैं-इसलिए किसानों को इन पर भरोसा नहीं है। महाराष्ट्र का प्रमुख किसान संगठन शेतकारी संगठन नये कृषि कानूनों का समर्थन कर रहा है और इसके अध्यक्ष अनिल घनवत हैं, जो कोर्ट कमेटी के दूसरे सदस्य हैं। शेतकारी संगठन कृषि मंत्री को कृषि कानूनों पर अपना लिखित समर्थन दे चुका है। ज्तो घनवत से कैसे उम्मीद लगाई जा सकती है कि वह विरोध के स्वर बर्दाश्त करेंगे।
समिति के तीसरे सदस्य अशोक गुलाटी हैं, कृषि अर्थशास्त्री हैं और उन्होंने कुछ समय पूर्व इंडियन एसप्रेस में एक लेख लिखकर कहा था-‘हमें ऐसे कानूनों की जरूरत है जिसमें किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिए ज्यादा से ज्यादा गुंजाइश बचे। नये कृषि कानून इस जरूरत को पूरा करते हैं।’ गुलाटी का ये भी स्पष्ट मानना है कि एमएसपी की व्यवस्था आर्थिक आपदा खड़ी कर सकती है। अर्थात गुलाटी एमएसपी के विरोधी हैं। ऐसे व्यक्ति से भला आंदोलनकारी किसान कैसे या या कोई उम्मीद रख सकते हैं? कमेटी के चौथे मेम्बर हैं-डॉ. प्रमोद कुमार जोशी। जोशी का कृषि शोध के क्षेत्र में बड़ा नाम है। किसान इन पर भी भरोसा करने को तैयार नहीं हैं क्योंकि ये भी नये कृषि कानूनों के समर्थक हैं। और उनके समर्थन में अपनी सहमति व्यक्त करते रहे हैं। कृषि कानूनों की घोर समर्थक समिति कानूनों के विरोधी किसानों की बातों पर ध्यान देगी, इस पर तो कोई भी शंकित हो सकता है। बहरहाल आंदोलनकारी किसान गणतंत्र दिवस पर ‘किसान ट्रेक्टर परेड’ निकालने की तैयारी में जुटे हैं, जिसमें सवा लाख ट्रेक्टर शामिल होने का दावा किया जा रहा है। एक तरफ सरकार किसानों से समझौते का दिखावा कर रही है, दूसरी तरफ उन्हें चिढ़ाने में जुटी है। अटार्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि आंदोलन में खालिस्तानी संगठन की घुसपैठ हो चुकी है। यदि सरकार के पास इस तरह की खुफिया जानकारी है तो उन घुसपैठियों को अब तक पकडऩे की कोई भी कार्रवाई यों नहीं हुई है? इसका उत्तर तो सरकार ही दे सकती है। उसे इस प्रश्न का उत्तर देना ही चाहिए। कुल मिलाकर अभी मामला सुलझने के आसार बहुत ज्यादा नहीं हैं।
राकेश शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)