ज्यादा खतरनाक है काम पर जाना

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हाल में भारत सरकार ने आंशिक रूप से लॉकडाउन को हटाते हुए सभी कृषि कार्यों और विशिष्ट उत्पादन, वाणिज्यिक और सेवा उद्योगों को फिर से शुरू करने की अनुमति दी है। स्टैंडर्ड आॅपरेटिंग प्रोटोकॉल (एसओपी) द्वारा राज्यों के भीतर प्रवासी मजदूरों के आवागमन की इजाजत दी गई है। एसओपी के अनुसार, शहरों में शेल्टरों में रहने वाले प्रवासी कामगारों में कोरोना के लक्षणों की जांच कर लक्षण-मुक्त कामगारों के कौशल का मूल्यांकन किया जाएगा, ताकि उन्हें अलग-अलग काम में लगाया जा सके। श्रम मंत्रालय के अनुमानों के अनुसार भारत में 10 करोड़ अंतरराज्यीय प्रवासी मजदूर और 10 करोड़ अंतर-जिला प्रवासी मजदूर हैं। यह मजदूरों का वह हिस्सा है जो कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के दुष्प्रभावों से ज्यादा प्रभावित हुआ है। संवेदनहीन और पराये शहरों में जीवन और जीविका की अनिश्चितता से उत्पन्न व्याकुलता के कारण प्रवासी कामगारों में अपने गांव जाने की प्रबल इच्छा देखने को मिल रही है। शहरों में फंसे प्रवासी कामगारों की स्थिति बेहद चिंताजनक है। ये भुखमरी के कगार पर, भीख मांगने की स्थिति तक पहुंच गए हैं। इसका निदान करने में राहत योजनाएं विफल रही हैं। ऐसे में औद्योगिक इकाइयों को शुरू करना सरकार की निष्ठुरता भी उजागर करता है।

प्रवासी कामगारों की जांच कर उन्हें सुरक्षित घर भेजने की जगह मालिकों की जरूरतों के अनुसार इधर-से-उधर भेजा जाएगा। आशंका यह है कि जो प्रवासी मजदूर यह अनुदेश नहीं मानेंगे कहीं उन्हें राहत योजनाओं की आंशिक मदद से भी न हाथ धोना पड़े।कई जगह मजदूरों को रोज काम पर ले जाने के मालिकों के बोझ को आसान करने के लिए उनके फैक्टरियों में ही सोने का इंतजाम करने का प्रावधान किया गया है, जिससे कामगारों को शेल्टरों में रह रहे उनके परिवारों से अलग रहना पड़ रहा है। मगर औद्योगिक इकाइयों को शुरू करना केवल मजदूरों के लिए ही खतरनाक नहीं है। यह कोविड-19 के सामुदायिक संक्रमण के खतरे को विनाशकारी स्तर पर आगे बढ़ाने का काम कर सकता है। प्रवासी मजदूरों की बहुसंख्यक आबादी गंदी और भीड़-भरी झुग्गी-बस्तियों में रहती है और इस कारण संक्रमित होने का उन्हें विशेष खतरा है। एनएसएस 69वें दौर (2012) के अनुसार 60 प्रतिशत सबसे गरीब शहरी परिवारों के पास रहने के स्थान के रूप में 380 वर्ग फुट निर्मित क्षेत्र था। एनएसएस के हालिया आंकड़ों (2018) से पता चलता है कि औसत शहरी परिवार के लिए एक आवास इकाई का औसत तल क्षेत्र लगभग 496 वर्ग फुट है।

मगर झुग्गी में रहने वालों के लिए औसत प्रति व्यक्ति जगह 42 वर्ग फुट है, जो जेल में कैदी के लिए अनुशंसित 96 वर्ग फुट से भी कम है। ऐसे में इन तंग झुग्गियों में रहने वाले प्रवासी मजदूरों के लिए शारीरिक-दूरी बना पाना असंभव है। विडंबना है कि एसओपी के प्रावधानों में केवल कार्यस्थलों में शारीरिक-दूरी बनाने पर ध्यान केंद्रित किया गया है और यह कामगारों की रिहाइशी स्थिति को सिरे से अनदेखा करता है। इसके अतिरिक्त शहरी गरीबों और विशेष रूप से शहरी झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले औसत प्रवासी मजदूर के लिए पानी की सुविधाएं बहुत सीमित हैं। ऐसी स्थिति में कोविड-19 संक्रमण से अपने को बचाने के लिए बार-बार हाथ धोना इन बहुसंख्यक कामगारों के लिए संभव नहीं है। इन सबको देखते हुए साफ है कि प्रवासी मजदूरों को काम के लिए मजबूर करना कोविड संक्रमण की आशंका को खतरनाक रूप से बढ़ा देता है। सच पूछें तो मजदूरों को शहरी झुग्गियों और शेल्टरों में रहने और काम पर लौटने के लिए मजबूर करना उनको गांव जाने देने से ज्यादा खतरनाक है। गांव में मजदूरों के लिए भीड़-भाड़ से बचना और शारीरिक दूरी बना पाना अपेक्षाकृत आसान होगा। और फिर यह सवाल तो है ही कि प्रवासी कामगारों की जांच कर उन्हें काम दिया जा सकता है तो उनकी जांच कर उन्हें सुरक्षित घर क्यों नहीं भेजा जा सकता?

माया जॉन
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर और लेबर हिस्टोरियन हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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