हमारे शास्त्रों में लिखा गया है कि घर में बनने वाले भोजन का सर्वप्रथम भगवान को भोग लगाना चाहिए और फिर स्वयं ग्रहण करना चाहिए। ऐसा यों करना चाहिए और इसी के महत्व को बताती हुई ये लघु कथा प्रभु भोग का फल हैं। एक सेठजी बड़े कंजूस थे। एक दिन दुकान पर बेटे को बैठा दिया और बोले कि बिना पैसा लिए किसी को कुछ मत देना, मैं अभी आया। अकस्मात एक संत आये जो अलग-अलग जगह से एक समय की भोजन सामग्री लेते थे। लड़के से कहा, बेटा जरा नमक दे दो। लड़के ने सन्त को डिब्बा खोल कर एक चमच नमक दिया। सेठजी आये तो देखा कि एक डिब्बा खुला पड़ा था। सेठजी ने पूछा या बेचा बेटा? बेटा बोला, एक सन्त, जो तालाब के किनारे रहते हैं, उनको एक चमच नमक दिया था। सेठ का माथा ठनका और बोला, अरे मूर्ख! इसमें तो जहरीला पदार्थ है। अब सेठजी भाग कर संतजी के पास गए, सन्त जी भगवान् के भोग लगाकर थाली लिए भोजन करने बैठे ही थे कि सेठजी दूर से ही बोले, महाराज जी रुकिए, आप जो नमक लाये थे, वो जहरीला पदार्थ था, आप भोजन न करें।
संतजी बोले, भाई हम तो प्रसाद लेंगे ही, क्योंकि भोग लगा दिया है और भोग लगा भोजन छोड़ नहीं सकते। हां, अगर भोग नहीं लगता तो भोजन नही करते और कहते-कहते भोजन शुरू कर दिया। सेठजी के होश उड़ गए, वो तो बैठ गए वहीं पर। रात हो गई, सेठजी वहीं सो गए कि कहीं संत जी की तबियत बिगड़ गई तो कम से कम बैद्यजी को दिखा देंगे तो बदनामी से बचेंगे। सोचते सोचते उन्हें नींद आ गई। सुबह जल्दी ही सन्त उठ गए और नदी में स्नान करके स्वस्थ दशा में आ रहे हैं। सेठजी ने कहा, महाराज तबियत तो ठीक है। सन्त बोले:, भगवान की कृपा है! इतना कह कर मन्दिर खोला तो देखते हैं कि भगवान् के श्री विग्रह के दो भाग हो गए हैं और शरीर काला पड़ गया है।अब तो सेठजी सारा मामला समझ गए कि अटल विश्वास से भगवान ने भोजन का ज़हर भोग के रूप में स्वयं ने ग्रहण कर लिया और भत को प्रसाद का ग्रहण कराया। सेठजी ने घर आकर बेटे को घर दुकान संभला दी और स्वयं भति करने सन्त शरण में चले गए! इसलिए रोज ही भगवान् को निवेदन करके भोजन का भोग लगा करके ही भोजन करें, भोजन अमृत बन जाता है।