आप नहा-धोकर प्रेस वाले कपड़े पहनकर, सुबह-सुबह घर से निकले। बिल्डिंग की लॉबी चकाचक है, कॉमन एरिया में माली पौधों को पानी दे रहा है। फिर आपने बिल्डिंग के बाहर कदम रखा और वहां क्या? लोहे का एक विशाल कूड़ादान, जिसमें से कचरा बेशर्मी से प्रदर्शन कर रहा है। सब्जी के छिलके, दूध का थैला, यूज किया हुआ डायपर, ई-कॉमर्स वाले गत्ते के डब्बे, और जाने क्या-क्या बदसूरत नजारा। तपती हुई धूप में कचरा सड़ रहा है।
उफ, ये कॉर्पोरेशन वाले अपना काम क्यों नहीं करते! यह हिदायत देकर, सांस दो सेकंड रोककर, आप जल्दी से वहां से चलते बने। लेकिन बेंगलुरु शहर में आरवी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग की छात्रा निवेधा को यह मंजूर न था। कुछ दोस्तों के साथ उन्होंने कॉलेज के पास एक गली में सफाई अभियान चलाया और उस जगह का रुख बिल्कुल बदल गया। अखबार में इस मुहिम की तारीफ हुई, लोग भी खुश। मगर महज एक हफ्ते बाद, उसी जगह पर, कचरे का ढेर फिर खड़ा हो गया।
यह देख निवेधा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया। उसने कॉर्पोरेशन का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने कहा कि गलती हमारी नहीं, लोगों की है। वो गीला और सूखा कचरा मिलाकर फेंक देते हैं। खैर, दोष जिसका भी हो, इस समस्या का हल क्या है? निवेधा के दिमाग में बस यही सवाल गूंज रहा था। काफी रिसर्च की, पता चला कि हमारे देश में रोज 1,70,000 टन कचरा पैदा होता है।
उसमें से 95% वैसा का वैसा, शहर के बाहर ‘लैंडफिल’ में पटक दिया जाता है। ये ऊंचे-उंचे कचरे के पहाड़ आज मीलों दूर से दिखते हैं। गहन अध्ययन के बाद निवेधा ने समझा कि लोगों की सोच बदलना मुश्किल है। बेहतर होगा कि एक तकनीकी सॉल्यूशन निकालें। यानी एक ऐसी मशीन जो किसी भी तरह का कचरा लेकर उसमें से गीला और सूखा अलग-अलग कर दे। इससे फायदा यह कि गीले का कम्पोस्ट बन सकता है और सूखे की रिसाइकिलिंग हो जाएगी।
इस आइडिया के साथ निवेधा ने एक एक्सपर्ट से मुलाकात की। उन्होंने सिर हिलाते हुए कहा, यह तो बेवकूफी है। ऐसी मशीन आज तक बनी नहीं और न बन सकेगी। इसमें एक नहीं, सौ अड़चनें हैं। निवेधा निराश न हुई। उसने एक-एक ऑब्जेक्शन को सुना और फिर सोचा कि हां, ऐसी प्रॉब्लम आ सकती है। तो मशीन डिजाइन करते वक्त हमें ये सब ध्यान में रखना चाहिए। छह महीने की मेहनत के बाद एक बेसिक मशीन तैयार हुई।
इसे कहते हैं ‘प्रोटोटाइप’, यानी कि वर्किंग मॉडल, जिससे साबित हुआ कि आइडिया में दम है। पर इस काम को बड़े स्केल पर करने के लिए काफी पैसों की जरूरत थी। यह कोई आसान काम नहीं था। निवेधा के मन में ख्याल आया, क्यों न मैं कोई आईटी जॉब कर लूं या एमबीए कर लूं? लेकिन मां ने उसे प्रोत्साहित किया। इस काम की दुनिया को बहुत जरूरत है, इतनी जल्दी हार न मानो।
कोशिश करो, अगर फेल हुई तो शर्म की बात नहीं। और तो और, मां ने अपने बचत खाते से दो लाख रुपए की रकम बेटी के हाथ में रख दी। इससे निवेधा का हौसला बढ़ा और उन्होंने एलिवेट 100 प्रतियोगिता में भाग लिया। आइडिया की काफी सराहना हुई, साथ में 10 लाख रुपए भी मिल गए। इन पैसों ने निवेधा ने एक बड़ी मशीन बनाई, उसका डेमो दिया।
दस मिनट के अंदर मशीन बंद हो गई। ब्रेकडाउन की वजह, कचरे की एक थैली में किसी ने पत्थर डाल दिया था। इस फेलियर से सीख लेकर निवेधा ने और बेहतर, इडियट-प्रूफ मशीन तैयार की। आज ‘ट्रैशबॉट’ वेस्ट-सॉर्टिंग मशीन (कचरा छांटना) बेंगलुरु और अन्य शहरों में दिन-रात चल रही हैं। समाज के हित में काम करने वाली कंपनी, आज प्रॉफिट भी कमा रही है।
मात्र 26 साल की उम्र में निवेधा ने वो किया है, जिसे विशेषज्ञों ने नामुमकिन कहा था। इसका राज क्या है? समस्या का हल वो निकालता है, जिसके दिल में जुनून हो। नाक बंद करने की बजाय, हिम्मत के ग्लव्स पहन लें। और प्रॉब्लम्स के कूड़ेदान में उतरने की ठान लें। औरों को जो कचरा दिखता है, शायद उसी में एक अनोखा कॅरिअर छुपा हो? ढूंढिए और जानिए।
रश्मि बंसल
(लेखिका स्पीकर हैं ये उनके निजी विचार हैं)