गीत सामंती सोच की शिकार

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फिल्मी गीत, वत के साथ लोकगीत बन जाते हैं, हम खुश हों तो झूमने के काम आते हैं, उदास हों तो आंसू बहाने के लिए एक कांधे की तरह हाजिर हो जाते हैं। जन्म से लेकर जनाजे तक हमारी जिंदगी में ऐसा कोई क्षण नहीं होता, जब फिल्मों के गाने एक दोस्त की तरह हमारे साथ मौजूद न हों। फिर भी यही गीत असर सामंतवादी सोच का शिकार हो जाते हैं, और साहित्य की गौरवशाली सभा में इन्हें बैठने के लिए एक कुर्सी तक नसीब नहीं होती। अपनी तमाम पहुंच, तमाम काबिलियत, तमाम खूबियों के बावजूद ये अदब की महफिल में किसी बिन बुलाए मेहमान की तरह लुटे पिटे और बे-इज्जत नजर आते हैं। हैरानी होती है कि साहित्य को बड़ा ठहराने के लिए फिल्मी गीतों को छोटा बताना जरूरी यों है। मैं सिनेमा और साहित्य दोनों का एक मामूली सा विद्यार्थी हूं, लेकिन अपनी एक उपलब्धि पर मैं जरूर फर्ख करता हूं कि मैंने बहुत अच्छा पढ़ा है, बहुत अच्छा सुना है।

और इस बुनियाद पर मैं कह सकता हूं कि ऐसे सैकड़ों फिल्मी गीत हैं, जिन्हें साहित्य की सभा में सिर्फ कुर्सी नहीं, सिंहासन मिलना चाहिए। फेहरिस्त इतनी लंबी है कि आपका सब्र और मेरी सलाहियत दोनों कम पड़ जाएंगे, कहां से शुरू करें, नीरज से शुरू करते हैं- ‘फूलों के रंग से दिल की कलम से तुझको लिखी रोज पाती, कैसे बताऊं किस-किस तरह से पल-पल मुझे तू सताती, …लेना होगा जनम हमें कई कई बार’ बताइए, साहित्य के कौन से मानदंड पर ये गीत कमजोर उतरता है? आनंद बख्शी याद आते हैं। 16 बरस का इश्क जब दुनिया से बगावत करता है तो बख्शी साहब की कलम झुककर उस बागी इश्क को सलामी पेश करती है और ये कलम दुनिया के किसी भी बड़े साहित्यकार की कलम से कमजोर नहीं। ‘सोलह बरस की बाली उम्र को सलाम, प्यार तेरी, पहली नजऱ को सलाम…।’ या है एक बड़े साहित्य की पहली शर्त, दृष्टिकोण और गहराई। जो लिखा गया उसका दृष्टिकोण कितना नया है और उसमें गहराई कितनी है, इसी से तय होता कि वो साहित्य महान कितना है।

परखिए इस कसौटी पर बख्शी साहब का ये गीत, वो तमाम चीज़ें, जिन्हें परंपरागत समाज शक की नजर से देखता है। सिर्फ इश्क और मोहब्बत ही नहीं, दुनिया के किसी भी सब्जेट पर जब एक बड़े फिल्मी गीतकार ने कलम चलाई है, तो पत्थर की लकीर खींच दी है।एक फिल्मी गीतकार आपको बता रहा है कि लोकतंत्र या है, उस भाषा में जिसे 5 बरस का बच्चा भी समझ ले। ‘होंगे राजे राजकुंवर हम, बिगड़े दिल शहजादे, हम सिंहासन पर जा बैठें, जब-जब करें इरादे। सूरत है जानी पहचानी, दुनिया वालों की हैरानी..सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी।’ कैसे-कैसे गीत लिखे गए हमारे यहां, ‘मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है…।’ ये गुलजार की कलम है, जिसने सिनेमा से लेकर साहित्य तक अपना लोहा मनवा लिया। आगे से जब आप फिल्मों के गीत सुनें, तो उन शब्दकारों को इज्जत से याद करें जो जिंदगी भर अदब की महफिल के बाहर बंजारों की तरह खड़े रह गए, जिन्हें साहित्य की सभा में किसी ने पानी तक नहीं पूछा।

मनोज मुंतशिर
(प्रख्यात गीतकार और लेखक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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