हर साल खत्म हो रहे जंगल

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हर साल, इस पृथ्वी से फुटबाल के 27 मैदानों के बराबर जंगल बर्बाद हो रहे हैं। वही जंगल, जिन्हें धरती के महानतम प्राकृतिक संसाधनों में गिना जाता है। महानतम इसलिए क्योंकि ये दुनिया की 80% भू जैव-विविधता का घर हैं और इनकी वजह से पूरी दुनिया में 1.6 अरब से ज्यादा लोगों को रोजी-रोटी मिलती है। और ऐसे में हर साल पृथ्वी जंगलों का एक करोड़ 87 लाख एकड़ हिस्सा खो रही है। भारत भी हर साल 200 वर्ग किलोमीटर के बराबर जंगल खो रहा है।

हालांकि वैश्विक मानकों से तुलना करें तो अपने जंगलों की रक्षा करने के मामले में भारत बेहतर काम कर रहा है। फिलहाल भारत दुनिया का 10वां सबसे ज्यादा वनीकृत देश है, जो पिछले दशक में वन आच्छादन को हासिल करने के मामले में दुनिया में तीसरे स्थान पर रहा। हालांकि जब बारीकी से इन आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि ये पूरी कहानी नहीं बयां करते।

वन आच्छादन में यह बढ़ोतरी मुख्य रूप से इसलिए हुई है क्योंकि भारत 10% या उससे अधिक ट्री, कैनोपी डेंसिटी वाली संपूर्ण भूमि और एक एकड़ से ज्यादा क्षेत्र को जंगल की श्रेणी में रखता है। मगर सच्चाई यह है कि देश ने पिछले 8 दशकों के दौरान अपने प्राकृतिक वनों का 28 फीसदी से ज्यादा हिस्सा खो दिया है। द फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया 2019 की रिपोर्ट से जाहिर होता है कि भारत का उत्तर पूर्वी इलाका बहुत तेजी से जंगल खो रहा है।

भारत के कार्बन उत्सर्जन में अपनी मर्जी से कटौती के लक्ष्यों में एक यह भी है कि वह जंगलों को बहाल करके और वन आच्छादन बढ़ाकर ढाई से तीन अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर अतिरिक्त कार्बन सिंक उत्पन्न करेगा। भारत अभी लक्ष्य से बहुत पीछे है और वनों की गुणवत्ता को हो रहे नुकसान की वजह से लक्ष्य हासिल करना और भी मुश्किल हो जाएगा।

हालांकि ऐसे रास्ते मौजूद है जिनके जरिए भारत अपने जलवायु तथा विकास संबंधी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए समझदारी से इस्तेमाल कर सकता है। सबसे पहले तो विकास संबंधी परियोजनाओं के लिए वन भूमि के नुकसान को फौरन रोकना होगा। वर्ष 2019 में देश के 22 राज्यों में सिंचाई, खनन तथा सड़क निर्माण जैसी 932 गैर वन परियोजनाओं के लिए कुल 114.68 वर्ग किलोमीटर वन भूमि का इस्तेमाल किया गया।

हालांकि भारत का एक चौथाई हिस्सा जंगलों तथा पेड़ों से ढका हुआ है, लेकिन घने जंगलों (70% से अधिक कैनोपी वाले) का प्रतिशत बहुत कम है। देश में ज्यादातर जंगल कम घने या खुले हुए हैं। इन क्षेत्रों में घनत्व को पुनर्जीवित करने की अच्छी संभावनाएं हैं, क्योंकि इन स्थानों पर जिंदा जड़ें अब भी मौजूद हैं, जिन्हें तेजी से बढ़ाया जा सकता है।

यही वजह है कि भारत पेड़ लगाने के लिए अतिरिक्त भूमि का इस्तेमाल किए बगैर अपने कार्बन सिंक में बढ़ोतरी कर सकता है क्योंकि घने जंगलों में कार्बन को सूखने की अपेक्षाकृत अधिक क्षमता होती है। अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड जैसे ज्यादातर उत्तर पूर्वी राज्यों में स्थित जंगल संबंधित प्रदेशों के वन विभागों के कार्य क्षेत्र में नहीं आते बल्कि वे स्थानीय समुदायों द्वारा नियंत्रित और प्रबंधित किए जाते हैं।

इस क्षेत्र में जंगलों को हो रहे नुकसान और उसके चलते जलवायु परिवर्तन पर लगाम लगाने के लिए स्थानीय समुदायों को वन संरक्षण संबंधी गतिविधियों में शामिल करने और उन्हें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है। भारत में जंगल राज्यों का विषय हैं। जंगलों तथा हरित आच्छादन को बढ़ाने तथा उसे दोबारा हासिल करने के लिए राज्यों को प्रोत्साहित करने के मामले में देश अच्छा काम करेगा।

15वें वित्त आयोग में ऐसे ही एक प्रोत्साहन की बात सामने आई है। आयोग ने शुद्ध करों को केंद्र तथा राज्य सरकारों के बीच बांटने की सिफारिश की है। जंगलों के संरक्षण और उन्हें बढ़ाने के लिए करीब 12 अरब डॉलर खर्च किए जाएंगे, यह दुनिया में इस मद में खर्च की जाने वाली सर्वाधिक धन राशियों में से है। जिन राज्यों में जितना ज्यादा वन आच्छादन होगा उन्हें केंद्रीय करों से उतना ही ज्यादा हिस्सा मिलेगा।

आरती खोसला
(लेखिका निदेशक क्लाइमेट ट्रेंड्स हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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