थका-डरा कर भगाएंगें किसानों को

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केंद्र सरकार किसानों को थकाने और उनके आंदोलन को लंबा चलने देने की रणनीति पर काम कर रही है। सरकार को लग रहा है कि आंदोलन लंबा चला तो किसान थकेंगे। उनका लौटना शुरू होगा। ठंड बढ़ेगी तो मुश्किलें भी बढ़ेंगी और पीछे से यानी पंजाब और हरियाणा से नए किसानों का आना कम होगा। इस बीच भाजपा का देश भर में प्रेस कांफ्रेंस करने और चौपाल लगाने का अभियान चलेगा, जिसमें कृषि कानूनों को कथित फायदे समझा जाएंगे। इस दौरान भाजपा नेताओं का किसान आंदोलन की साख खराब करने का अभियान भी चलेगा। कोई उसे चीन-पाकिस्तान समर्थक आंदोलन बताएगा तो कोई खालिस्तान समर्थक तो कोई नक्सली और माओवादी समर्थक बताएगे।

किसान चूंकि दिल्ली की सीमा पर बैठे हैं और पांच-छह तरफ से दिल्ली को घेरा हुआ है तो उससे आम लोगों को निश्चित रूप से कुछ परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। अगर आंदोलन लंबा खिंचा तो परेशानी बढ़ेगी और इस तरह से किसान आंदोलन को मिल रहा लोकप्रिय समर्थन कम होगा। तभी सरकार किसानों को उलझाए रखे हुए है। नौ दिसंबर को किसान नेताओं की कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के साथ वार्ता होनी थी पर आठ दिसंबर को अचानक गृह मंत्री अमित शाह ने किसानों को बुलाया और उसके बाद पांच दिन तक वार्ता की कोई पहल नहीं हुई। 13 दिसंबर तक दोनों तरफ इंतजार चलता रहा।

इस बीच देरी करने और किसानों को थकाने की सरकार की रणनीति में नई चीजें जुड़ने लगीं। जैसे पुलिस ने किसानों के ऊपर कोरोना प्रोटोकॉल का पालन नहीं करने का मुकदमा शुरू कर दिया। हालांकि भाजपा के नेता बंगाल में सभाएं कर रहे हैं और कई केंद्रीय मंत्री हाल ही में हैदराबाद में बड़ी रैलियां करके आए हैं, जहां किसी ने कोरोना प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया, लेकिन उसमें मुकदमे नहीं दर्ज हुए। पर आंदोलनकारी किसानों पर मुकदमा हो रहा है। सरकार को एक बहाना मिल गया कि किसान आंदोलन में तैनात दो आईपीएस अधिकारी कोरोना संक्रमित हो गए।

इस बीच कई कारणों से किसान बीमार होने लगे हैं। टॉयलेट कम हैं, इसलिए दूसरे तरह के संक्रमण का खतरा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 17 दिन से आंदोलन कर रहे किसानों में से 11 किसानों की मौत हो चुकी है। बीमारी बढ़ने और मौत की वजह से किसानों में घबराहट भी है। ऊपर से कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने का डर दिखाया जा रहा है। इसकी वजह से आंदोलन अंदर से कमजोर हो सकता है और मजबूरी में किसानों को सरकार की बात माननी पड़ सकती है। हालांकि अभी तक तो किसान साहस दिखा रहे है पर यह देखना होगा कि ऐसा कब तक चलता है।

वैसे भारत सरकार के चार मंत्री किसानों से बात कर रहे हैं। रूटीन की वार्ता कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, रेल मंत्री पीयूष गोयल और वाणिज्य राज्य मंत्री सोम प्रकाश के जिमे थी और एक दिन औचक वार्ता गृह मंत्री अमित शाह ने की। रूटीन में बात कर रहे मंत्रियों ने कहना शुरू कर दिया है कि किसानों के आंदोलन में वामपंथी, नसली और माओवादी शामिल हो गए हैं। एक अखबार की रिपोर्ट और फोटो दिखा कर तोमर ने सवाल उठाया कि दंगे आदि में शामिल लोगों की रिहाई की मांग करने के पोस्टर किसान आंदोलन में यों दिख रहे हैं। किसान उनके असर से निकलेंगे तब उनको पता चलेगा कि केंद्र सरकार का बनाया कृषि बिल उनके लिए कितना फायदेमंद है।

अब सोचें ऐसे मंत्रियों के साथ किसान कैसे बात करेंगे, जो किसानों के आंदोलन की साख बिगाड़ रहे हैं? राव साहेब दानवे जैसे दूसरे मंत्री आंदोलन को चीन-पाकिस्तान से जोड़ रहे है वह अलग बात है। लेकिन जो मंत्री वार्ता में शामिल हैं, जिनके ऊपर समाधान निकालने की जिमेदारी है अगर वे ही आंदोलन को नसलियों, माओवादियों और टुकड़े टुकड़े गैंग का समझ रहे हैं तो उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है? वे कैसे किसानों की बात सुनेंगे क्या समझेंगे? उन्हें इतनी बुनियादी बात समझ में नहीं आ रही है कि पंजाब और हरियाणा के किसान इतनी ठंड में 19 दिन से आंदोलन कर रहे हैं तो अपनी चिंता में, अपनी फसल की कीमत की चिंता में, अपनी जमीन छिन जानी की चिंता में कर रहे हैं, किसी माओवादी, नसली सरोकार की चिंता में नहीं कर रहे हैं!

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