आपके दर्द में बराबर के शरीक

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मेरा सफर दिल्ली से मुंबई तक का था। ट्रेन में भीड़ तो बहुत थी, पर ठंड की वजह से वह खल नहीं रही थी। भीड़ से दो- चार होते हुए, हम भी अपनी सीट तक पहुंच गए। सीट पर पहले से एक बुजुर्ग और एक अधेड़ सज्जन बैठे हुए थे, शायद उनकी ऊपर या नीचे की सीट रही होंगी। हमने अपनी सीट का नंबर जोर से पढ़ा ताकि इशारों में वह समझ जाएं कि इस सीट का मालिक मैं ही हूं। सीट नंबर पढ़कर हम भी वहीं बैठ गए। तय वत से बीस मिनट बाद, ट्रेन चल दी। वहां हम तीनों ही मौजूद थे। असर सफर में बातचीत कंबल और चादर बिछाने से ही शुरू हो जाती है और इन्हें छोड़ते ही खत्म भी हो जाया करती है। हमारी भी बातचीत शुरू हो गई। बुजुर्ग हमारी बातों को सुन रहे थे। हम और वह सज्जन दुनिया-जहान की सारी बातें झोंके हुए थे। अचानक बहस का सिरा शहरों के मिजाज की तरफ घूम गया और सज्जन के निशाने पर लखनऊ आ गया। उन्हें नहीं पता था कि मेरी मिट्टी खलिस लखनवी है। वह बोले, ‘लखनऊ के लोग बड़े ही दोहरे चरित्र के होते हैं। सामने कुछ, पीछे कुछ। मीठी जुबान में तेजाब सी जहनियत छिपा कर आते हैं। काहिल अव्वल दर्जे के होते हैं। एक काम पर इनकी मदद मांगो तो दस किस्से बता देंगे मगर काम की बात नहीं बताएंगे। ऊपर से अपने खाने-पीने को लेकर अव्वल दर्जे के घमंडी।

लखनऊ के लोगों से काम कोई या लेगा, ये खुद काम का काम तमाम कर दें। वत तो जैसे इनके घर की सरसों है, जब चाहा तब पिरा लिया।’हमारी तरफ देखकर बोले, ‘क्यों भाई साहब, ऐसा ही है न? हमने कहा, जी।’ वह फिर चीख उठे, ‘देखा, आप भी मानते हैं यह।’ तब हम उनसे बोले, ‘हुजूर, माफ कीजियेगा, आपके जहन पर हमारे किसी भाई ने जाने-अनजाने चोट दी है, इस तकलीफ को तो समझ सकते हैं, आपके दर्द में बराबर से शरीक हैं। माफ करिएगा, हम खुद लखनवी हैं।’ अब वह सज्जन हवा हो गए। बोले, ‘ए भाई, माफ कीजिएगा। मेरा हरगिज इरादा आपको तकलीफ देने का नहीं था, पर आपको मेरी बात चुभी हो तो बड़ी शर्मिंदगी से माफी। आइंदा ऐसे अनजाने में किसी को नहीं कहेंगे।’ हम एक-दूसरे से माफी-तलाफी कर ही रहे थे कि पहली बार हमारी बातचीत में बुजुर्ग ने अपने अल्फाज मिलाए और सज्जन से मुखातिब होकर बोले, ‘बेटा, तुम घूमे बहुत होंगे, शहर दर शहर की तहजीब यानी संस्कृति समझते भी होगे, मगर जो लखनऊ है न, वहां तुम्हें सिर्फ तहजीब नहीं मिलेगी।

लखनऊ की मिट्टी ने तहजीब के आगे भी एक लफ्ज जोड़ा है, जो इसे बाकी तहजीब से अलग करता है, वह है, तमीज। वहां लोग खाली तहजीब नहीं कहते, तमीज तहजीब कहते हैं। यानी तहजीब को तमीज का जामा पहनाकर उसके हुस्न को परवान चढ़ाना जानते हैं वे। इसलिए सीधेसीधे इनकार नहीं करते। मुंह पर जवाब देकर दिल को बदरंग करना वह तहजीब की तमीज के खिलाफ समझते हैं। खुद देखो इस नौजवान ने तुम्हारे मुंह से कितना कुछ उलटा-सीधा सुना, मगर जवाब जिस तमीज से दिया, इसके पीछे खड़ी तहजीब देखिए।’सज्जन ने हां में सर हिलाया। बुजुर्ग ने कहा, ‘मैं भी लखनवी ही हूं इसलिए तमीज तहजीब के दायरे को लांघना मेरी भी रवायत नहीं है और आप भी बुरा मत मानिए, आप भी लखनवी ही हैं।’ मैंने बुजुर्ग की तरफ घूरकर देखा कि यह उन सज्जन को लखनवी कह रहे, जो अभी लखनऊ पर ही अपनी जुबान गंदी कर रहे थे। बुजुर्ग बोले, जिस अंदाज में आपने माफी मांगी, यह भी लखनवी तमीज तहजीब है। यह शहर की तहजीब पर तमीज के कपड़े ही हैं, जो बातों में हाथों के इस्तेमाल को रोकते हैं और बातों को बातों से ही रद्द करना जानते हैं। सज्जन मुस्कुराए और एक तिरछी मुस्कान हमारी तरफ देते हुए बोले, जी हम भी लखनवी ही हैं। यह सुनते ही हम तीनों हंस पड़े और सफर अपने अंजाम को पहुंचा।

हफीज किदवाई
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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