संसद में प्रधानमंत्री के स्पष्टीकरण के बावजूद आंदोलनजीवी पर बहस हो रही है। उनके भाषण के दूसरे पहलू एफडीआई यानी फॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी पर समाज और संसद में सार्थक विमर्श हो तो देश की तकदीर बदल सकती है। पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग और पॉप सिंगर रिहाना जैसी विदेशी हस्तियों के अलावा एफडीआई का भारतीय पहलू भी है। लाल किले के उपद्रव का मुख्य आरोपी दीप सिद्धू गिरफ्तारी से पहले अमेरिका में अपने मित्र के माध्यम से फेसबुक पर अपने वीडियो अपलोड कर रहा था।
इन वाकयों से साफ है कि एफडीआई वायरस का फैलाव वॉट्सएप, फेसबुक, टि्वटर, गूगल और यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया नेटवर्क से होता है। लेकिन सरकार की दिलचस्पी सिर्फ टि्वटर पर ही लगाम कसने की दिख रही है, जिससे विवाद और संकट बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री ने मैथिलीशरण गुप्त जी की पंक्तियों का जिक्र करके पूरे देश की जनभावना को विस्तार दिया। ‘अवसर तेरे लिए खड़ा है, फिर भी तू चुपचाप पड़ा है। तेरा कर्मक्षेत्र बड़ा है, पल-पल है अनमोल, अरे भारत उठ, आंखें खोल।’ राष्ट्रकवि ने यह भी कहा था कि ‘संभलो कि सुयोग न जाए चला, कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला’।
हालिया घटनाक्रम के छह पहलुओं से सबक लेकर सरकार अपने विरोधाभास और असमंजस खत्म करे तो एफडीआई वायरस की भी वैक्सीन बन सकती है। पहला, कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की किसान आंदोलन पर और टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा की सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस पर आपत्तिजनक टिप्पणी संसद की कार्यवाही से हटा दी गई। लेकिन दिलचस्प यह है कि इन दोनों बयानों को सोशल मीडिया, लोकसभा टीवी पर सत्तारूढ दल और विपक्ष के कद्दावर नेताओं और आईटी सेना द्वारा खूब वायरल किया जा रहा है।
देश-विदेश के करोड़ों लोगों तक इन वीडियोज की उपलब्धता से भारत के संविधान का इकबाल कमजोर हो रहा है, जिस पर देश की संसद का मौन दु:खद है। दूसरा, सोशल मीडिया, ओटीटी, ई-कॉमर्स, क्रिप्टो करंसी जैसे सभी मामलों के तार आपस में गुथे हुए हैं। इन मामलों पर आईटी, सूचना एवं प्रसारण, वित्त, कानून और वाणिज्य मंत्रालयों का विरोधाभासी दृष्टिकोण होना दुर्भाग्यपूर्ण है। गुप्त जी ने कहा था, ‘प्राचीन बातें ही भली हैं, यह विचार अलीक है, जैसी अवस्था हो वहां वैसी व्यवस्था ठीक है।’
देश में इन सभी विषयों के लिए या तो कानूनी व्यवस्था है या नहीं है? यदि नहीं है तो क्यों नहीं बन रही? और यदि है तो उन नियमों को सभी पर एक समान तरीके से लागू क्यों नहीं किया जा रहा? तीसरा, राष्ट्रकवि ने कहा था, ‘निज रक्षा का अधिकार रहे जन-जन को, सब को सुविधा का भार किंतु शासन को।’ भारत के कानून व सोशल मीडिया कंपनियों की खुद की नियमावली के अनुसार हिंसा, फेक न्यूज़, पोर्नोग्राफी, ड्रग्स आदि का प्रसार करने वाले सभी पोस्ट और फेक यूजर्स पर तुरंत प्रतिबंध लगना चाहिए। ऐसे कंटेंट व बोगस यूजर्स को बढ़ावा देकर ये कंपनियां खरबों मुनाफा कमाती हैं।
सोशल मीडिया कंपनियों के आपत्तिजनक कंटेंट पर आंखें मूंदकर सिर्फ ट्विटर पर ही बंदूक दागने से सरकार की मंशा के साथ राज्य की सार्वभौमिक शक्ति भी संदेह के दायरे में आती है। चौथा, हजारी प्रसाद द्विवेदी को लिखे पत्रों में मैथिलीशरण जी ने कहा था, ‘होगी सफलता क्यों नहीं, कर्तव्य पथ पर दृढ़ रहो।’ पिछले साल भारत सरकार ने सैकड़ों चीनी एप पर प्रतिबंध लगाया था। यानी ट्विटर या ऐप्स पर कार्रवाई के लिए कानून से ज्यादा सरकार की इच्छाशक्ति की जरूरत है। देश में किसी भी अपराध के लिए आम जनता को थाने में जाना पड़ता है। दूसरी तरफ सोशल मीडिया कंपनियों के मामलों पर संसदीय समिति व मंत्रियों के हस्तक्षेप करने से संवैधानिक समानता और कानून के शासन पर ही सवालिया निशान खड़े होते हैं।
पांचवा, कू जैसे निजी ऐप्स, सरकार के दम पर सफल भी हो गए तो आगे चलकर उन पर चीन या अमेरिका की बड़ी कंपनियां कब्जा करके भारत में एफडीआई के वायरस को और तेजी से बढ़ाएंगी। भारत का कानून लागू करने के लिए जरूरी है कि सरकार इन ताकतवर कंपनियों के नामांकित अधिकारियों का खुलासा करे, जिन पर सरकारी आदेश के अनुपालन की जवाबदेही भी बने। छठवां, अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रम्प का अकाउंट सस्पेंड करने के बाद अब ट्विटर ने उन्हें हमेशा के लिए बैन कर दिया है। तो फिर अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भारत सरकार के आदेश के पालन में नानुकुर करने का क्या तुक है?
इन कदमों से यह भी साफ है कि ट्विटर और फेसबुक जैसी कंपनियां इंटरमीडियरी के कानूनी छूट की हकदार नहीं हैं और उनसे पूरे टैक्स की वसूली होनी चाहिए। राष्ट्रकवि ने तो पिछली शताब्दी में कह दिया था कि ‘फैला यहीं से ज्ञान का आलोक सब संसार में, जागी यहीं थी जग रही जो ज्योति अब संसार में।’ अमेरिका या यूरोपियन यूनियन की तरफ देखने की बजाय भारत को डिजिटल की नई कानूनी व्यवस्था बनाने की शुरुआत करनी चाहिए।
विराग गुप्ता
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं ये उनके निजी विचार हैं)