ध्यान का आनंद लेना आसान

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दिक्कत सिर्फ यही है कि ध्यान लगता नहीं है, या यूं कहें कि हमें ध्यान लगाने की विधि नहीं आती। ध्यान चेतना की विशुद्ध अवस्था है जहां कोई विचार नहीं होते, कोई विषय नहीं होता। साधारणतया हमारी चेतना विचारों से, विषयों से, कामनाओं से आच्छादित रहती है, जैसे कि कोई दर्पण धूल से ढंका हो। हमारा मन एक सतत प्रवाह है। विचार चल रहे हैं, कामनाएं चल रही हैं, पुरानी स्मृतियां सरक रही हैं- रात-दिन एक अनवरत सिलसिला है। नींद में भी हमारा मन चलता रहता है, स्वप्न चलते रहते हैं। यह अ-ध्यान की अवस्था है। ठीक इससे उलटी अवस्था ध्यान की है- जब कोई विचार नहीं चलते और कोई कामनाएं सिर नहीं उठातीं। सारा ऊहापोह शांत हो जाता है और हम परिपूर्ण मौन में होते हैं- वह परिपूर्ण मौन ध्यान है। और इसी में सत्य का साक्षात्कार होता है। जब मन नहीं होता तब जो होता है वह ध्यान है। ध्यान की जगह: अगर ध्यान के लिए एक नियत जगह चुन सकें- एक छोटा-सा मंदिर, घर में एक छोटा-सा कोना, एक ध्यान कक्ष- तो सर्वोत्तम है। फिर उस जगह का किसी और काम के लिए उपयोग न करें, क्योंकि हर काम की अपनी तरंगें होती हैं। उस जगह का उपयोग सिफऱ् ध्यान के लिए करें, और किसी काम के लिए उसका उपयोग न करें तो वह जगह चार्ज हो जाएगी और रोज़ हमारी प्रतीक्षा करेगी।

वह जगह बहुत सहयोगी हो जाएगी। वहां एक वातावरण निर्मित हो जाएगा, जिसमें हम बहुत सरलता से ध्यान में गहरे प्रवेश कर सकते हैं। इसी वजह से मंदिरों, मस्जिदों, चर्चों का निर्माण हुआ था- कोई ऐसी जगह हो जिसका उपयोग सिफऱ् ध्यान और प्रार्थना के लिए हो। ध्यान का समय: अगर ध्यान के लिए एक नियत समय चुन सकें तो वह भी बहुत उपयोगी होगा, क्योंकि हमारा शरीर, हमारा मन एक यंत्र है। अगर हम रोज़ एक नियत समय पर भोजन करते हैं तो हमारा शरीर उस समय भोजन की मांग करने लगता है। हमारा मन भी एक यंत्र है। अगर हम एक नियत जगह पर, एक नियत समय पर रोज ध्यान करें तो हमारे शरीर और मन में ध्यान के लिए भी एक प्रकार की भूख निर्मित हो जाती है। हर दिन उस समय पर शरीर और मन ध्यान में जाने की मांग करेंगे। शुरू-शुरू में यह बहुत सहयोगी होगा, जब तक कि ध्यान हमारे लिए इतना सहज न हो जाए कि हम कहीं भी, किसी भी समय ध्यान में जा सकें। तब तक मन और शरीर की इन यांत्रिक व्यवस्थाओं का उपयोग करना चाहिए। इनसे एक वातावरण निर्मित होता है। कमरे में अंधेरा हो, अगरबत्ती-धूपबत्ती की ख़ुशबू हो, एक ही लंबाई के व एक प्रकार के कपड़े के वस्त्र पहनें, एक-से कालीन या चटाई का उपयोग करें, एक-से आसन का उपयोग करें।

इससे ध्यान नहीं हो जाता, लेकिन इससे मदद मिलती है। व्यवस्था सिफऱ् इतना करती है कि एक सुखद स्थिति निर्मित हो। और जब हम सुखद स्थिति में प्रतीक्षा करते हैं तो कुछ घटता है। जैसे नींद उतरती है, ऐसे ही परमात्मा उतरता है। जैसे प्रेम घटता है, ऐसे ही ध्यान घटता है। हम इसे प्रयास से नहीं ला सकते, हम इसे ज़बरदस्ती नहीं पा सकते। कैसे चुनें विधि: हमेशा उस विधि से शुरू करें जो रुचिकर लगे। ध्यान को ज़बरदस्ती थोपना नहीं चाहिए। अगर ज़बरदस्ती ध्यान को थोपा गया तो शुरुआत ही ग़लत हो गई। ज़बरदस्ती की गई कोई भी चीज़ सहज नहीं हो सकती। अनावश्यक कठिनाई पैदा करने की कोई ज़रूरत नहीं है। यह बात अच्छे से समझ लेनी है, क्योंकि जिस दिशा में मन की सहज रुचि हो, उस दिशा में ध्यान सरलता से घटता है।जो हमें रुचिकर लगता है, उसी में हम गहरे जा सकते हैं। रुचिकर लगने का मतलब ही यह है कि उसका हमसे तालमेल है। हमारा छंद उसकी लय से मेल खाता है। विधि के साथ हम एक हॉर्मनी में हैं। तो जब कोई विधि रुचिकर लगे तो फिर और-और विधियों के लोभ में न पड़ें। फिर उसी में गहरे उतरें। कार्य ही ध्यान: जब भी आपको लगे कि आपका मूड अच्छा नहीं है और काम करना अच्छा नहीं लग रहा है तो काम शुरू करने से पहले पांच मिनट के लिए गहरी सांस बाहर फेंके।

भाव करें कि सांस के साथ खऱाब मूड भी बाहर फेंक रहे हैं। और आप हैरान हो जाएंगे कि पांच मिनट में अनायास ही आप फिर से सहज हो गए। यदि हम अपने कार्य को ही ध्यान बना सकें तो सबसे अच्छी बात है। तब ध्यान हमारे जीवन में कभी द्वंद्व नहीं खड़ा करेगा। जो भी करें, ध्यान पूर्वक करें। ध्यान कुछ अलग नहीं है, वह जीवन का ही एक हिस्सा है।और केवल थोड़ी-सी सजगता की बात है। ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत नहीं। जो चीज़ें आप असावधानी से कर रहे थे उन्हें सावधानी से करना शुरू करें। चाय का आनंद: ध्यान वह है, जो जीवन में सहज रूप से आए और फिर सारा जीवन ही ध्यान बन जाए। इसलिए उन्होंने औपचारिक विधियों के साथ ही रोज़ाना की गतिविधियों को ध्यान में बदल देने के सूत्र भी सुझाए हैं। क्षणक्षण जिएं। तीन सप्ताह के लिए कोशिश करें कि जो भी आप कर रहे हैं उसे जितनी समग्रता से कर सकें, करें। उसे प्रेम से करें और उसका आनंद लें। हो सकता है यह मूर्खतापूर्ण लगे। यदि आप चाय पी रहे हैं तो उसमें इतना आनंद लेना मूर्खतापूर्ण लग सकता है कि यह तो साधारण-सी चाय ही है। लेकिन साधारण-सी चाय भी असाधारण रूप से सौंदर्यपूर्ण हो सकती है। यदि हम उसका आनंद ले सकें तो वह एक गहन अनुभूति बन सकती है। उसे ध्यान बना लें। चाय बनाना, केतली की आवाज सुनना, फिर चाय उड़ेलना, उसकी सुगंध लेना, चाय का स्वाद लेना, और ताजगी अनुभव करना। मुर्दे चाय नहीं पी सकते। केवल अति जीवंत व्यक्ति ही चाय पी सकते हैं। इस क्षण हम जीवित हैं। इस पल हम चाय का आनंद ले रहे हैं। धन्यवाद से भर जाएं और भविष्य की मत सोचें। अगला पल अपनी फि़क्र ख़ुद कर लेगा।

आचार्य रजनीश
(अपने संपूर्ण जीवनकाल में ओशो यानी आचार्य रजनीश को एक विवादास्पद रहस्यदर्शी, गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में देखा गया। आज के दौर में उनके ये विचार कहीं ज्यादा मायने रखते हैं)

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