इस्लामिक स्टेट ने इराक और सीरिया में ड्रोन्स का इस्तेमाल करके खूब तबाही मचाई है। ऐसे ही छोटे ड्रोन्स और वाडकॉप्टर्स के जरिए पहली बार भारत में धमाके हुए हैं। किस्मत से ज्यादा नुकसान नहीं हुआ, मगर जिस तरह से दो-तीन साल में पाकिस्तानी आतंकियों ने ड्रोन्स का तेजी से इस्तेमाल शुरू कयिा है, वह बेहद चिंता की बात है। खतरा सिर्फ विस्फोटकों तक सीमित नहीं है, एक सीनियर अधिकारी के अनुसार आतंकी ड्रोन्स के जरिए बायोलॉजिकल या केमिकल एजेंट्स भी डिलीवर कर सकते हैं। फिर मचने वाली तबाही की बस कल्पना की जा सकती है। मगर फोटोग्राफी और निगरानी के लिए बनाए गए ड्रोन्स का आतंक के लिए इस्तेमाल कैसे और कब शुरू हुआ? यों पूरी दुनिया को ड्रोन वारफेयर से खतरा है? ड्रोन्स ऐसे मानवरहित विमान हैं जिनका मुख्य रूप से इस्तेमाल निगरानी के लिए होता है। इनका आकार सामान्य विमान या हेलिकॉप्टर्स के मुकाबले काफी कम होता है। 1990 के दशक में अमेरिका ड्रोन का इस्तेमाल मिलिट्री सर्विलांस के लिए करता था। इनकी मदद से ड्रोन को किसी भी दिशा में उड़ाया जा सकता है।
इन्हें बनाना और कंट्रोल करना ज्यादा आसान होता है। शौकिया इन्हीं ड्रोन्स का इस्तेमाल होता है। दुनिया के कई देशों की सेनाएं सर्विलांस के लिए ड्रोन्स का इस्तेमाल करती हैं। 2019 की एक रिपोर्ट बताती है कि 2029 तक दुनियाभर में 80 हजार से ज्यादा सर्विलांस ड्रोन और 2,000 से ज्यादा अटैक ड्रोन्स खरीदे जाएंगे। अमेरिका, चीन, रूस, इजरायल, भारत, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों में ड्रोन्स का खूब इस्तेमाल होता है। 2000 से पहले तक ड्रोन्स का इस्तेमाल निगरानी रखने के लिए ही होता था। मगर 11 सितंबर 2001 को अमेरिका में अल-कायदा के हमले ने सबकुछ बदल दिया। अमेरिका ने अपने प्रीडेटर ड्रोन्स पर हथियार लगाने शुरू कर दिए। अटूबर 2001 में अफगानिस्तान में पहली ड्रोन स्ट्राइक की गई। इसके बाद से अमेरिका ने अफगानिस्तान के अलावा इराक, पाकिस्तान, सोमालिया, यमन, लीबिया और सीरिया में भी ड्रोन हमले किए हैं। इस्लामिक स्टेट ने इराक और सीरिया में छोटे ड्रोन्स का जमकर इस्तेमाल किया है। कॉमर्शियल ड्रोन्स साइज में छोटे होते हैं और ज्यादा शोर नहीं करते। इसी वजह से आतंकियों को भा रहे हैं। ऐसे में आतंकी इन ड्रोन्स के जरिए आसानी से हमला कर सकते हैं।
बदल सकती है जंग की सूरत: काफी हद तक हालात पहले ही बदल चुके हैं। अब हवाई मिशंस के लिए ड्रोन्स को ही प्राथमिकता दी जाती है। ड्रोन्स के जरिए बड़ी आसानी से कई किलो के विस्फोटक दुश्मन पर गिराए जा सकते हैं। मिसाइलें लॉन्च करने वाले ड्रोन्स मौजूद हैं। केमिकल या बायोलॉजिकल युद्ध भी इनके जरिए छेड़ा जा सकता है। मचा सकते हैं तबाही: आज से करीब 25 साल पहले एक जापानी आतंकी समूह ने ड्रोन्स के जरिए सरीन गैस फैलाने का प्लान बनाया था। मिडल ईस्ट के आतंकी समूह भी ड्रोन्स के जरिए मिशंस को अंजाम दे चुके हैं। ड्रोन्स की मदद से पहला सफल आतंकी हमला 2013 में किया गया, ऐसा माना जाता है। केंद्रीय और दक्षिणी अमेरिका में ड्रग काट्रेल्स भी ड्रोन रखते पकड़े गए हैं। हालांकि उन्होंने ड्रोन्स का इस्तेमाल तस्करी के लिए किया मगर एजेंसियों ने ऐसे ड्रोन्स भी पाए जिनका इस्तेमाल हमलों के लिए हुआ। ड्रोन्स आतंकियों को यों पसंद आ रहे हैं, उसकी वजह यह है कि इनके जरिए बिना पकड़ में आए ज्यादा नुकसान किया जा सकता है।
आतंकवादी अपनी जान को खतरे में डाले बिना हमले को अंजाम दे सकते हैं। भारत कितना तैयार: डीआरडीओ ने दो ऐंटीड्रोन सिस्टम डिवेलप किए हैं। एक की रेंज 2 किलोमीटर है और दूसरे की 1 किलोमीटर मगर दोनों का ही बड़ी संख्या में उत्पादन अभी शुरू नहीं हुआ है। सेना अन्य सिस्टम आयात कर रही है। इन्हें बंदूकों या राइफलों पर लगाया जा सकता है और छोटे ड्रोन्स को दिन या रात, किसी भी वत निशाना बना सकते हैं। मगर फिलहाल भारत ऐसे खतरों से निपटने में सक्षम नहीं है। ऐडवांस्ड रडार और मिसाइलों वाले हमारे एयर डिफेंस सिस्टम बड़े ड्रोन्स का सामना करने के लिए हैं। एक सीनियर अधिकारी ने कहा, छोटे ड्रोन्स जिन्हें किसी बालकनी से लॉन्च कियिा जा सकता है और जिनकी फ्लाइंग रेंज 4-5 किलोमीटर होती है, उनका रडार क्रॉस-सेशन काफी कम होता है और उन्हें बड़े जहाज की तरह ट्रैक नहीं कर सकते।
दीपक वर्मा
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)