कर्म फल भोगते हुए भी दु:खी नहीं हों !

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यदि हम इस कर्मसिद्धान्त को मान लें और जान लें तो पूर्वकृत घोर से घोर कर्म का फल भोगते हुए भी हम दु:खी नहीं होंगे बल्कि अपने चित्त की समता बनाये रखने में सफल होंगे। भगवान श्रीकृष्ण इस समत्व के अभ्यास को ही समत्व योग संबोधित करते हैं, जिसमें दृढ़ स्थिति प्राप्त होने पर मनुष्य कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है। इस बारे में एक कथा कुछ यूं है कि एक धर्मात्मा राजा ने मंदिर बनवाकर उसमें ब्राह्मण को पुजारी के रूप में नियुत किया।

एक दिन राजा के पुत्र की उसकी पत्नी राजकन्या से हत्या हो गई। जब यह बात राजा के समक्ष आई तो राजा के पूछने पर राजकन्या ने सारा दोष पुजारी के ऊपर मढ दिया। राजा ने पुजारी का आदर करते हुए उसका एक हाथ काट दिया। राजा के कृत्य से दु:खी होकर पुजारी एक ज्योतिष के पास पहुंचा। जब ब्राह्मण ज्योतिष के घर गया तो वह कहीं गया हुआ उनकी पत्नी जब ज्योतिष के बार में पूछा तो उसने अपने पति के बारे में अपशब्द कहे तो उसे बड़ी हैरानी हुई।

ज्योतिष के आने पर पुजारी ने जब उनकी पत्नी के द्वारा कहे शब्दों बताया और उसका कारण जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि पूर्व जन्म में ये गधी थी जिसकी पीठ पर एक फोड़ा था मैं कौआ था, स्वभाव के कारण मैं फोड़े में चोंच मारकर इसे परेशान करता था। एक दिन यह दुखी होकर गंगा जी के घाट पर चली गई। मैं भी इसकी खोज में वहीं पहुंच गया मैंने जैसे ही फोड़े अपनी चोंच मारी तो मेरी चोच हड्डी में फंस गई और चाहकर भी न निकली अंत में गधी गंगा में कूद गई। और हम दोनों मारे गए। अपनी घटना का कारण जानना चाहा तब ज्योंतिष ने बताया कि यह सब कर्मफल है जिसे भोगना ही पड़ता है।

ज्योतिष ने बताया कि पूर्व जन्म में तुम एक सच्चे तपस्वी थे, राज कन्या एक गाय थी और राजकुमार एक कसाई था। कसाई गाय को मारना चाहता था कि गाय जान बचाने के लिए वहां से जंगल की ओर भाग गई। कसाई ने जब तुमसे गाय का पता पूछा तो आपने अपने हाथ से इशारा करके गाय का पता बता दिया जिससे कसाई ने गाय को मार दिया। जब कसाई गाय की चमड़ी निकाल रहा था तब एक शेर आया गाय और कसाई को खा गया। इस जन्म में गाय राजकन्या व कसाई राजकुमार बना। तुमने अपने हाथ से गाय का पता बताया था इसलिए तुहारा हाथ काटा गया।

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