‘तीसरे मोर्चे’ की चर्चा जोरों पर

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आधुनिक चाणक्य की अनवरत तलाश में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को उनका आधुनिक अवतार बताया गया, जब शाह भाजपा को लगातार चुनावी जीत दिला रहे थे। अब बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की जीत के बाद उसके मुख्य रणनीतिकार प्रशांत किशोर को राजनीतिक चाणक्य कह रहे हैं। शायद इसीलिए महाराष्ट्र के नेता शरद पवार की किशोर से तीन बैठकें हुईं। क्या नया राजनीतिक विकल्प बनाने की योजना बन रही है, जो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को 2024 में चुनौती दे सके? पवार और किशोर की जोड़ी अजीब है।

पवार किसानों से लेकर उद्योगपतियों तक से जुड़े हैं और बड़े नेटवर्क वाले राजनेता हैं। वहीं किशोर तकनीक के महारथी और सर्वे तथा आंकड़ों में बात करने वाले व्यक्ति हैं। 80 वर्षीय राजनेता और 44 वर्षीय रणनीतिकार को एक करने वाली एक ही चीज है, सत्ता की खुशबू। क्या इस साझेदारी के पीछे इसके अलावा भी कुछ है?

कुछ हद तक पवार-किशोर की साझेदारी के पीछे मोदी के प्रभुत्व को 2024 में चुनौती देने का मोदी-विरोधी खेमे का उतावलापन नजर आता है। राजनीतिक आईसीयू से बाहर आने में असमर्थ कांग्रेस को देखते हुए ‘तीसरी मोर्चे’ की संभावना मोदी विरोधियों के लिए आकर्षक है। ‘तीसरा मोर्चा’ अजीब राजनीतिक जानवर है जो अक्सर धरती खोदकर बाहर आ जाता है, जब लगता है कि यह विलुप्त होने वाला है।

1990 के दशक के मध्य में जब गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी थी, तब इस मॉडल के निर्माता पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने कहा था, ‘तीसरा मोर्चा गैर-जरूरी लग सकता है, लेकिन यह अपरिहार्य है।’ भाजपा 1990 के दशक में धीरे-धीरे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पार्टी बन रही थी और कांग्रेस धीरे-धीरे पीछे हट रही थी।

इस खालीपन को कई महत्वाकांक्षी नेताओं और ढुलमुल राजनीतिक गठबंधनों ने भरा जो भाजपा-विरोध या कांग्रेस विरोधी भावना या सिर्फ पद के लिए अवसरवादिता से उभरे थे। आज का भारत अलग है। भाजपा दबदबे वाली पार्टी है, जबकि कांग्रेस और डूब गई है। भविष्य में राजनीतिक गठबंधन या तो मोदी-भाजपा राजनीति के पक्ष से या विरोध से बनेंगे।

यही कारण है कि आज के भगवा राजनीतिक परिवेश में एकजुट तीसरे मोर्चे के विचार की सफलता की संभावना नहीं है। हाल में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते हैं कि क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतें भाजपा को चुनौती दे सकती हैं। इन ताकतों को क्षेत्रीय मंच पर साथ लाना, मोदी राज का राजनीतिक विकल्प चाहने वालों के लिए आकर्षक विकल्प हो सकता है। जरूरी नहीं कि यह अखिल भारतीय संघीय मोर्चा हो, बल्कि यह भाजपा का ‘स्थानीय’ विकल्प हो सकता है। हालांकि यह कहना आसान है, करना मुश्किल। मसलन, क्षेत्रीय दलों के अक्सर अपने घरेलू प्रतिद्वंद्वियों के साथ परस्पर विरोधी हित होते हैं।

तृणमूल और दक्षिणपंथी एक मंच पर नहीं आएंगे, अखिलेश यादव और मायावती में कोई केमिस्ट्री नहीं है। उससे भी जरूरी यह है ऐसा व्यापक गठजोड़ राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के बिना काम नहीं कर सकता। 2019 के चुनाव में सबसे बुरे लोकसभा प्रदर्शन के बावजूद कांग्रेस का वोट शेयर 19.5% था। पवार ने माना भी है कि कोई भी नया विपक्षी ‘मोर्चा’ कांग्रेस को शामिल किए बिना नहीं हो सकता। वे महाराष्ट्र विकास अगाड़ी प्रयोग को राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहते हैं, जो मुश्किल लग रहा है। महाराष्ट्र में कांग्रेस शिवसेना के साथ सरकार में है, लेकिन क्या वह दिल्ली, गोवा या पंजाब में केजरीवाल की ‘आप’ से जगह साझा करेगी?

यह पेचीदा सवाल बना हुआ है कि ‘राष्ट्रीय’ चुनाव में विपक्षी मोर्चे का नेतृत्व कौन करेगा। इस दौर में नेतृत्व विश्वसनीय राजनीतिक फैसले लेने के लिए जरूरी है। उदाहरण के लिए 2019 में अंतिम समय में संयुक्त विपक्ष बनाने का प्रयास बेनतीजा रहा, जब कांग्रेस ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बताया।

तब विपक्ष को कड़ा फैसला करना था: क्या मोदी को हराना लक्ष्य था या राहुल गांधी को नेता स्वीकार करना? यह दुविधा बरकार है कि क्या विपक्ष मोदी के सामने एक नेता को खड़ाकर उन्हें चुनौती देना चाहता है या 543 सीटों पर राज्यवार गबंधन बनाना चाहता है। जब तक इस सवाल का जबाव नहीं मिलता, विपक्ष में एकता होना मुश्किल ही है।

राजदीप सरदेसाई
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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