अब अवसाद रहा है सबको घेर

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पिछले दिनों जापान से आत्महत्या की एक दिल दहलाने वाली तस्वीर सामने आई। कोरोना के दौरान वहां सिर्फ अक्टूबर भर में 21 सौ लोगों ने आत्महत्या कर ली। कोरोना ने अभी तक जापान में तकरीबन दो हजार जानें ली हैं। जाहिर है, उससे ज्यादा लोगों ने खुदकुशी कर ली है। अवसाद पहले ही दुनिया की सबसे बड़ी मुसीबत था, अब तो यह कोरोना से भी होड़ ले रहा है। याद करें तो अपने यहां भी लॉकडाउन के बाद अवसाद और आत्महत्या की खबरों में तेजी आ गई थी। आंध्र प्रदेश से लेकर उत्तर प्रदेश तक में लोगों ने अपनी इहलीला समाप्त की। आर्थिक तंगी तो एक वजह रही ही, जो कोरोना से ठीक होकर वापस घर आए, अवसाद ने उनको और बुरी तरह घेर लिया। अटूबर में आंध्र प्रदेश में हुई वह घटना याद करें, जिसमें एक 72 साल के बुजुर्ग ने कोरोना से ठीक होने के बाद आत्महत्या कर ली थी। उनका अंतिम संस्कार करने को कोई राजी नहीं था, तो एक पुलिस वाले ने उनका अंतिम संस्कार किया। हाल ही में दिल्ली में एक पत्रकार की गुमशुदगी भी चर्चा में है। उन्हें भी कोरोना हुआ था, उसके बाद वे ठीक हुए, लेकिन घर छोड़कर पता नहीं कहां चले गए।

कोरोना से पहले अवसाद विश्व की महामारी बन चुका था। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बाकायदा इसे महामारी घोषित किया। दरअसल समाज में हताशा, निराशा और अकेलापन पहले ही पैर फैलाए हुए थे, कोरोना ने बस इन्हें डबल स्पीड का इंजन बना दिया है। हाल ही में जर्मनी के कार्लसुहे इंस्टिट्यूट ऑफ टेनॉलजी और सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ के शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों पर अध्ययन करके बताया कि महामारी ने वर्तमान समय में न केवल सार्वजनिक जीवन को प्रभावित किया है बल्कि सामाजिक सरोकारों पर भी प्रतिकूल असर डाला है। ऐसे में अगर बेहतर महसूस करना है, तो सीढिय़ों पर जल्दी-जल्दी चढऩा चाहिए। अध्ययन के अनुसार मुस्तैदी और ऊर्जा मानसिक स्वास्थ्य के महत्वपूर्ण घटक हैं। इससे नकारात्मक परिस्थिति में भी खुश रहा जा सकता है। इस साल एनसीआरबी ने पिछले साल की आत्महत्याओं का जो आंकड़ा दिया है, वह बताता है कि 2019 में रोजाना औसतन 381 लोगों ने खुद को खत्म कर लिया। विशेषज्ञों का मानना है कि 2020 तक इसमें कम से कम 3.4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो चुकी है।

कोरोना आने के बाद अकेले लुधियाना में आत्महत्या के मामले 11 फीसद तक बढ़ गए। हर साल विश्व में 8 लाख और देश में 2 से 3 लाख लोग आत्महत्या करते हैं। यानी हर 40 सेकेंड में एक व्यक्ति खुदकुशी करता है। इसके इलाज का हाल चाल देखें तो सबसे ताजा सरकारी रिपोर्ट हमें 2016 की मिलती है। 2016 में हुए राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में 15 करोड़ लोगों को साइकायट्रिस्ट की सेवाओं की सत जरूरत है, मगर यह सेवाएं सिर्फ 3 करोड़ भारतीयों को मिल पा रही हैं। थोड़ा कसूर हमारी जीवनशैली का भी है। जीवन में 80 प्रतिशत आनंद है और केवल 20 प्रतिशत दुख। लेकिन हम उस 20 प्रतिशत को पकड़ कर बैठ जाते हैं और उसे 200 प्रतिशत बना लेते हैं। ऐसा इसलिए योंकि हम चुनौतियों से निपटने की तकनीक नहीं जानते। दूसरे देशों में ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए खूब शोध किए जाते हैं।

वहां अवसाद से निपटने के लिए कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं, आम लोगों को उसका हिस्सा बनाया जाता है। मगर अपने यहां इस बारे में जागरूकता की बेहद कमी तो है ही, लोग साइकायट्रिस्ट के नाम से भी डरते हैं। महामारी के दौरान तनाव और अवसाद से मुक्ति के हजारों कामयाब तरीके दुनिया भर में आजमाए गए। घर में रहकर लोगों ने न केवल संगीत, पेंटिंग, नृत्य, गायन, लेखन, बागवानी, तैराकी, कुकिंग जैसे रचनात्मक कार्यों के जरिए खुद का मनोरंजन किया, बल्कि चैरिटी, पूजा, भजन और मदद को भी अपना हथियार बनाया। इससे उन्हें आसानी से अवसाद से जंग जीतने में मदद मिली और वे अकेलेपन से भी बाहर निकल आए। मतलब कि अगर जीवन जीने का एक पॉजिटिव नजरिया विकसित कर लिया जाए, तो आसानी से अवसाद जैसे दानव से निपटा जा सकता है।

डा. दर्शनी प्रिय
(लेखिका विश्लेषक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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