गुरुग्राम में रहने वाले अयजीत यादव तब सिर्फ 17 बरस के थे, जब 2016 उन्होंने क्रिप्टोकरंसी की दुनिया में कदम रखा। पिता से 90 हजार रुपये उधार लेकर उन्होंने बिटकॉइन में लगा डाले। 11 महीने बाद इन वर्चुअल कॉइन्स को उन्होंने साढ़े चार लाख रुपये में बेचा। यहां से उन्हें लगा कि निवेशक के बजाय क्रिप्टो चेन का हिस्सा बनना ज्यादा फायदेमंद होगा। इसका सेटअप तैयार करने में उन्होंने 55 लाख रुपये खर्च किए। 30 बड़े-भारी कंप्यूटर और हरेक में लगे पांच हाई-एंड ग्राफिक कार्ड। इस सेटअप को माइनिंग प्रफेशनल्स की भाषा में रिग कहते हैं। अयजीत के एक डिजिटल प्लैटफॉर्म को दिए इंटरव्यू से समझ में आता है कि असल तामझाम है सेटअप और मशीनों की प्रोग्रामिंग का। किसी भी क्रिप्टो के ट्रांजेक्शन की जानकारी स्टोर होती है डिजिटल ब्लॉक में। एक ब्लॉक भरने के बाद अगला खुलता है और इनकी कड़ी बन जाती है ब्लॉकचेन। ब्लॉकचेन तकनीक पर काम करने वाली क्रिप्टोकरंसी के लिए यही ब्लॉक तैयार करने का जिब्मा उठाते हैं माइनर। कोई ट्रांजेक्शन होने पर डिजिटल भाषा में कुछ जटिल कोड आते हैं। इस पहेली को सबसे पहले सुलझाने वाले माइनर को तोहफे में कुछ क्रिप्टो कॉइन मिलते हैं। एक बार सेटअप ठीक से चल पड़ा तो फास्ट प्रोग्रामिंग से बैकग्राउंड में पहेलियां हल होती रहती हैं और हर पल माइनर के पैसे बनते रहते हैं।
हालांकि इसकी लागत का बोझ उठाना आसान नहीं। यह पक्का करना होता है कि रिग ठीक से काम करता रहे। मशीनें गर्मी से फुंक ना जाएं, इसके लिए अयजीत ने छह एसी लगाए हैं। रिग 24 बाई 7 चलता रहे, इसके लिए ऑनलाइन यूपीएस की मदद लेते हैं। इस यूपीएस को बैकअप मिलता है जनरेटर से। अयजीत बताते हैं कि एक मिनट के लिए भी बिजली जाने पर मशीन को एक हफ्ता लग जाता है पूरी तरह फॉर्म में आने में। बिजली का सौदा महंगा पड़ता है, इसीलिए कंपनियां ठंडी जगहों पर माइनिंग के बड़े-बड़े फार्म लगा रही हैं। रूस के बड़े डेटा सेंटर माइनरों को रेंट पर ज़रूरी इक्विपमेंट देते हैं और इससे उनकी मोटी कमाई होती है। माइनिंग हब बने आइसलैंड की जीडीपी में क्रिप्टो कंपनियों के डेटा सेंटरों का योगदान एक प्रतिशत तक पहुंच चुका है। डच सेंट्रल बैंक के डेटा साइंटिस्ट एलेक्स दे व्रीस का अनुमान है कि हरेक बिटकॉइन ट्रांजेक्शन से औसतन 300 किलो कार्बन डाइऑक्साइड पैदा होता है। इसके कार्बन फुटप्रिंट को लेकर माइक्रोसॉफ्ट के सह-संस्थापक बिल गेट्स भी समय-समय पर चिंता जताते आए हैं। पैसे की लेनदेन के और किसी भी तरीके से यह कई गुना अधिक है। वीजा कार्ड को अगर साढ़े सात लाख बार स्वाइप किया जाए, तब जाकर उतना कार्बन पर्यावरण में मिलेगा, जितना बिटकॉइन की एक ट्रांजेक्शन से होता है।
पर्यावरण के साथ धोखाधड़ी का भी संकट गहरा है। ट्रेंड बढऩे के साथ माइनिंग के जरूरी इक्विपमेंट बाजार में मिलने मुश्किल होते जा रहे हैं। कोरोना के कारण सुस्त पड़ी मैन्युफैक्चरिंग का असर यह है कि चीन में तैयार होने वाले ग्राफिक कार्ड के कंपोनेंट कंपनियों तक नहीं पहुंच रहे। ई-मार्केटप्लेस जैसे-तैसे अगर इसकी रीस्टॉकिंग करते हैं तो शॉपिंग बॉट्स उन्हें मिनटों में कब्जा ले रहे हैं। ये एक तरह के कंप्यूटर प्रोग्राम होते हैं, जिन्हें इंटरनेट पर किसी प्रॉडक्ट की छानबीन करने के लिए डिजाइन किया जाता है। ग्राफिक कार्ड्स को बॉट्स आउट ऑफ स्टॉक रखते हैं ताकि इन्हें ऑक्शन साइटों पर महंगे दाम में बेचा जा सके। मान लीजिए किसी हाई-एंड कार्ड की कीमत 58 हजार रुपये हुई तो उसे लाख रुपये तक में बेचा जाएगा।बिजली बिल की तरह यहां भी चपत लगवा रहे हैं माइनर। वैसे उनका सोचना है कि क्रिप्टो की तेज उछाल पाई-पाई की भरपाई कर देगी। पर अगर क्रिप्टोकरंसी के दाम अचानक नीचे फिसल गए तो? खासतौर पर भारत के माइनरों को तो जरूर सतर्क हो जाना चाहिए। सरकार क्रिप्टो ट्रेडिंग और माइनिंग पर पाबंदी लगा सकती है। पूरी पाबंदी न भी लगाए तो नियम-कानून से क्रिप्टो पर लगाम कसी जा सकती है। ऐसा हुआ तो देश में क्रिप्टो के करीब एक करोड़ निवेशकों का पैसा पल भर में डूब जाने की आशंका पैदा हो जाएगी।
स्वस्तिका त्रिपाठी
(लेखिका पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)