अदालतें हैं लोकतंत्र का दीया!

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तीन जून और 15 जून 2021 का दिन भारत के न्यायिक इतिहास में ऐतिहासिक तारीख के रूप में दर्ज होगा और साथ ही देश के लोकतांत्रिक इतिहास का भी एक अहम मुकाम माना जाएगा। तीन जून को सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश के दो टेलीविजन चैनलों और एक सांसद के ऊपर दर्ज राजद्रोह के मुकदमे पर रोक लगाते हुए कहा था कि सरकार का विरोध करना राजद्रोह नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने अंग्रेजी राज में बने इस कानून की समीक्षा की जरूरत भी बताई थी। इसके 12 दिन बाद 15 जून को दिल्ली हाई कोर्ट ने तीन युवा सामाजिक कार्यकर्ताओं- नताशा नरवाल, देवंगाना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा को गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून यानी यूएपीए के मामले में जमानत देते हुए कहा कि विरोध को दबाने की बेचैनी में सरकार विरोध के अधिकार और आतंकवादी गतिविधियों के बीच के फर्क को भूलती जा रही है। हाई कोर्ट ने तीनों युवाओं को जमानत देते हुए कहा कि किसी विरोध प्रदर्शन में शामिल होने का मतलब आतंकवादी गतिविधि में शामिल होना नहीं होता है। दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला कानून की व्याख्या से नहीं जुड़ा है। यह सिर्फ जमानत का फैसला है। लेकिन यह फैसला सुनाते हुए दो विद्वान जजों ने जो कुछ कहा वह कई मायने में ऐतिहासिक है और देश की सरकार को आईना दिखाने वाला है।

जजों ने बहुत स्पष्ट शब्दों में और बहुत विद्वतापूर्ण तरीके से मौजूदा समय के सबसे बड़े खतरे या सबसे बड़ी चिंता को रेखांकित किया। लोकतांत्रिक अधिकारों को दबाने का राज्य का प्रयास इस समय की सबसे बड़ी चिंता है। राजधानी दिल्ली से लेकर बस्तर के जंगलों तक एक समान रूप से यह काम किया जा रहा है। बस्तर के आदिवासियों से लेकर जेएनयू के छात्रों तक के ऊपर ऐसे कानूनों के तहत मुकदमे किए जा रहे हैं, जो आतंकवाद से लडऩे के लिए बनाए गए हैं। देश की एकता व संप्रभुता की रक्षा के लिए बनाए गए कानूनों का इस्तेमाल भारतीय दंड संहिता में वर्णित मामूली अपराधों के लिए किया जा रहा है। इसका मकसद किसी को सजा दिलाना नहीं है, बल्कि विरोध-प्रदर्शन के लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करने वालों को डराना है। तभी तीन सामाजिक कार्यकर्ताओं को जमानत देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि ‘असहमति को दबाने की बेचैनी में राज्य के दिमाग में विरोध के अधिकार और आतंकवादी गतिविधियों के बीच की रेखा धुंधली होती लगती है। अगर ये मानसिकता जोर पकड़ती है तो यह लोकतंत्र के लिए सबसे दुखद दिन होगा’। अदालत ने यह भी कहा कि सरकार का विरोध करना नागरिकों का लोकतांत्रिक अधिकार है, इसके लिए यूएपीए लगाना गलत है।

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह की धारा 124 (ए) की समीक्षा की जरूरत बताते हुए भी यही कहा था कि सरकार का विरोध राजद्रोह नहीं है। सरकार का विरोध करना नागरिकों का लोकतांत्रिक अधिकार है और अगर सरकारों ने यह अधिकार छीनने का प्रयास किया तो लोकतंत्र खतरे में पड़ेगा। असल में मौजूदा समय का सबसे बड़ा सरोकार या सबसे बड़ी चिंता यही है कि आईपीसी से इतर देश में कई ऐसे कानून बनाए गए हैं, जो बेहद कठोर हैं और जिनकी भाषा बहुत उलझी हुई या जटिल है। इस जटिलता का फायदा उठाते हुए सरकारें सामान्य अपराधों के मामले में भी इन कानूनों का इस्तेमाल करने लगती है। अगर कार्यपालिका बहुत ताकतवर हो, जैसे अभी केंद्र की सरकार है तो उसके लिए इन कानूनों का मनमाना इस्तेमाल बहुत आसान हो जाता है। वह कानूनों की अस्पष्ट व्याख्याओं का फायदा उठा कर अपने खिलाफ होने वाले विरोध को दबाती है और आंदोलनों को अपराध बनाने लगती है। दिल्ली हाई कोर्ट ने इस ओर इशारा करते हुए कहा कि यह लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है। सरकारों को यह ध्यान में रखना होगा कि कानून-व्यवस्था का मामला या सार्वजनिक शांति व व्यवस्था का मामला या राज्य की सुरक्षा का मामला अलग चीज है और देश की संप्रभुता और एकता व अखंडता की बात अलग है।

दोनों को मिलाने पर बड़ा संकट पैदा हो सकता है। लोगों के विरोध प्रदर्शन से कई बार कानून व्यवस्था बिगड़ती है लेकिन इसे अनिवार्य रूप से देश की एकता व अखंडता या संप्रभुता के लिए खतरा नहीं माना जा सकता है? कई बार कानून व्यवस्था तो किसी लोकप्रिय फिल्मी सितारे के कार्यक्रम में भी बिगड़ जाती है तो या वहां भी सरकारें यूएपीए या एनएसए जैसे कानून का इस्तेमाल कर सकती है? इस लिहाज से दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला बहुत राहत देने वाला है क्योंकि भले यह जमानत का आदेश है लेकिन माननीय न्यायमूर्तियों ने इसी बहाने यूएपीए के दुरुपयोग की संभावना को भी उजागर कर दिया है। यह बता दिया है कि अगर सरकार चाहे तो अपने विरोध की आवाज को दबाने और आंदोलन को अपराध बनाने के लिए इस कानून का इस्तेमाल कर सकती है और वह भी बिना किसी ठोस सबूत के। यह बात अदालत ने बहुत दो टूक अंदाज में कही है। अदालत ने नताशा नरवाल को जमानत देते हुए कहा कि ‘जब उत्तर पूर्वी दिल्ली के कई इलाकों में हिंसा और दंगे हो रहे थे तब सीएए व एनआरसी के विरोध प्रदर्शन आयोजन करवाने में शामिल होने के अलावा उनके खिलाफ कोई आरोप नहीं है। हमारी राय में आरोपपत्र और उसमें दी गई सामग्री के अनुसार भी वह आरोप नहीं बनते जो लगाए गए हैं।

सरकार मुद्दों को उलझाकर किसी को जमानत देने को विफल नहीं कर सकती’। सोचें, यह कितनी बड़ी टिप्पणी है। क्या इससे यह जाहिर नहीं हुआ कि राज्य ने विरोध प्रदर्शन की संभावना को कुचलने के लिए यूएपीए जैसे कानून का इस्तेमाल किया और मुद्दों को उलझाकर जमानत रुकवाए रखी! ध्यान रहे नताशा नरवाल, देवंगाना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा को एक साल से ज्यादा समय तक जेल में रखा गया है। तभी अदालत ने फैसले में कहा कि इस तरह की घटनाओं का मनोवैज्ञानिक असर पूरे समाज पर लंबे समय तक रहता है। जाहिर है अदालत ने इन तीन युवाओं को जेल में बंद रखने के पीछे की सरकार को मंशा को समझा और उसे उजागर किया। सोचें, आजाद भारत की बुनियाद ही अहिंसक आंदोलन, सत्याग्रह और असहयोग की नीति पर टिकी है और उस देश में सरकार अगर लोगों को डराने का प्रयास करती है तो या यह देश की बुनियाद पर हमला नहीं माना जाएगा?

दिल्ली हाई कोर्ट के जमानत के फैसले का असर दूरगामी होगा क्योंकि यह सिर्फ तीन युवाओं की जमानत के मामले से जुड़ा नहीं है, बल्कि इसका कानूनी दायरा बहुत बड़ा है। पिछले कई बरसों से देश में लगातार यूएपीए का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है। केंद्र सरकार ने खुद इस साल मार्च में संसद में बताया है कि 2015 में देश भर में कुल 897 केस यूएपीए के तहत दर्ज किए गए थे, जो 2019 में बढ़ कर 1,126 हो गए। जिस तेजी से यूएपीए, धारा 124 (ए) और एनएसए का इस्तेमाल बढ़ रहा है उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले स्पीड ब्रेकर का काम करेंगे। असहमति की आवाजों को दबाने, विरोध प्रदर्शन को कुचलने और आंदोलन को अपराध बनाने की मानसिकता में सरकारें इन कानूनों का मनमाना इस्तेमाल कर रही थीं। अदालतों के रुख से नागरिकों की हिमत बढ़ेगी और सरकारें सोचने के लिए मजबूर होंगी। इस तरह के फैसलों से अदालतें अपनी ऐतिहासिक भूमिका वापस हासिल कर रही हैं और उमीदों के नए अंकुर फूट रहे हैं।

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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