कोरोना टीका जायज करार

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साइंसदानों के अथक प्रयासों से अब तक दुनिया में कोरोना की कई वैक्सीन विकसित हो चुकी हैं और कुछ पर काम जारी है। ऐसे में मानव जाति की रक्षा के लिए कोरोना टीकाकरण पहली तरजीह बन गया है। लेकिन अफसोस की बात है कि कोरोना वैक्सीन को लेकर कई तरह के भ्रम फैलाए जा रहे हैं। विशेषकर मुस्लिम जगत में पिछले दिनों इसके हराम-हलाल को लेकर बेकार की बहस छिड़ गई। शुक्र है कि यह बवंडर जितनी तेजी से उठा था, उतनी ही जल्दी थम भी गया।

असल में यह कोई मुद्दा है ही नहीं। कुछ लोगों के जरिए खासकर सोशल मीडिया पर मुसलमानों की घेराबंदी करने के लिए ऐसी अफवाह फैलाई गई। बगैर किसी तथ्य के यह बात उछाली गई कि कोरोना के टीकों को बनाने के लिए सुअर की चर्बी या जिलेटिन का इस्तेमाल किया जा रहा है। चूंकि इस्लाम में सुअर खाने को हराम करार दिया गया है, इसलिए कहा गया कि मुसलमानों के लिए कोरोना टीकाकरण जायज नहीं है। हालांकि कोरोना बनाने वाली किसी संस्था या कंपनी के जरिए इसकी पुष्टि नहीं की गई। इस्लाम में तो वैसे ही हिकमत (बेहतरीन युक्ति) पर बल दिया गया है। इस्लाम में इंसानी जान को काफी महत्व दिया गया है। कुरान व हदीस में आया कि तीन दिन बाद भूख से कोई बेताब हो जाए तो मुर्दार (मृत) या हराम चीज भी खानी जायज है। इसके साथ ही अगर किसी हराम चीज का इस्तेमाल किसी वस्तु में किया गया और इस प्रक्रिया में उसका मूल स्वरूप बदल जाता है, तो भी इस्लाम में दवा इत्यादि के सेवन की अनुमति है। अर्थात शरीअत के अनुसार जान बचाने के लिए हराम चीजें खाने की भी अनुमति है। इसके साथ ही पोलियो वैक्सीन की तरह ही कोरोना टीकों के जरिए भी नपुंसक बनाने की साजिश रचने की अफवाह फैलाई गई।

देश व दुनिया के मुसलमानों को यह नहीं भूलना चाहिए कि सऊदी अरब के शहजादे मोहम्मद बिन सलमान, संयुक्त अरब अमीरात के प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद बिन राशिद अलमकतूम और तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब इरदुगान तक कोरोना का टीका लगवा चुके हैं। इन नेताओं के आगे बढ़कर टीका लगवाने का उद्देश्य भी लोगों का भ्रम दूर करना और टीकाकरण के लिए प्रेरित करना था। इसके बावजूद दुनिया के मुसलमानों में वैक्सीन को लेकर इस तरह का भ्रम फैलाने की कोशिश की गई, जो कि पूरी तरह से बेबुनियाद है। अच्छी बात यह है कि दारुल उलूम देवबंद, जामिया सलफिया, जामिया अशरफिया समेत देश के सभी प्रतिष्ठित मदरसों और धार्मिक संस्थानों ने तुरंत कुरान व हदीस की रौशनी में स्पष्टीकरण दिया और कोरोना टीकाकरण को जायज करार दिया। जमात-ए-इस्लामी हिंद और जमीअत उलेमा-ए-हिंद के जरिए तो बाकायदा कोरोना टीकाकरण के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने और सरकार की मदद करने तक का आह्वान किया गया। इस तरह देखा जाए तो मुसलमानों में इसको लेकर कोई भ्रम नहीं है, फिर भी इसको उछाला जा रहा है।

पोलियो उन्मूलन के लिए चलाए गए पल्स पोलियो अभियान के दौरान पिलाई जाने वाली वैक्सीन को लेकर भी इसी तरह की मिथ्या बातें फैलाई गई थीं, जिसके बाद भारत के उलेमा और मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने सामने आकर मुसलमानों को समझाया। अगर सरकार देश को पोलियो मुक्त बनाने में सफल हुई, तो उसमें इन उलेमाओं और बुद्धिजीवियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसके बरक्स हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में पोलियो टीकाकरण अभियान के प्रति पाई जाने वाली भ्रांतियों के चलते अब भी इस काम में लगे कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमले हो रहे हैं। धार्मिक अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़े पाकिस्तानी समाज में आज भी लाखों बच्चे पोलियो ग्रस्त हैं।

कोरोना टीकाकरण पर भी मुसलमानों को उलझाने का प्रयास किया जा रहा है। पल्स पोलियो अभियान से सबक लेते हुए उन्हें इस तरह की उलझनों से दूर रहना चाहिए। यह मामला इंसानियत को कोरोना जैसी भयानक महामारी से बचाने का है। इसलिए न तो किसी को अनर्गल अफवाह फैलाने की अनुमति दी जानी चाहिए और न ही किसी को उसमें फंसना चाहिए। कोरोना से बचाव ही वक्त का तकाजा और सबसे बड़ी मानव सेवा है।

प्रो. अख्तरुल वासे
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनीवर्सिटी में प्रोफेसर एमिरेटस हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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