कोरोना उत्पत्ति स्वतन्त्र विचार

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शुक्रिया सांसारिक ताकतों का जिन्होंने आखिर यह साबित कर ही दिया कि महाशातिर कोरोना की उत्पत्ति हमारे पुराने भाई के आंगन में हुई। किसी को कहा जाए कि यह गलत काम तुमने किया है, यह सब मानने या मनवाने वाले पर निर्भर करता है। ‘भाई’ तो बहुत पहले से शक्तिशाली, वैभवशाली और आत्मनिर्भर है, अब यह उनकी मर्ज़ी है कि वह माने या न माने। दुनिया में आना जाना लगा रहता है सो अच्छाई या बुराई के कीट पतंग भी तो यात्रा करते हैं। इस तरह से बीमारी के कीटाणु भी यात्रा कर सकते हैं। वैसे तो लाखों नजरिए इस बारे उपलब्ध हैं कि ऐसे होता है या वैसे होता है लेकिन यह भी तो नजरिया ही है कि पता नहीं कैसे होता है। कहते हैं वह छ फुट दूर से वार करता है तो क्या छ या नौ इंच की दूरी उसे अच्छी नहीं लगती होगी।

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हमारे यहां तो जनता इतनी है कि चलने के लिए तो क्या पास से सुरक्षित निकलने के लिए जगह नहीं बचती है। मुफ्त में खाना पीना तो किसी तरह से पीड़ित होने के बाद ही मिल सकता है। हाथ धोने के पानी नहीं मिलता तो कहते हैं सेनिटाईज़ किए जाओ, अब समझा रहे हैं कि ज्यादा सेनिटाईज़ भी न करिए। कहीं इससे भी तो नए लक्षण नहीं उग जाते। पता चला था हवा से नहीं फैलता इसलिए मुफ्त की हवा खाते रहे। वे कह रहे थे एक दो बार खांसी आ जाए तो कुछ नहीं, हां पांचवीं बार खांसोगे तो परीक्षा में फेल या पास होना होगा। अब तो खुद भी अपना टैस्ट ले सकते हैं। एक और बुद्धिजीवी ने समझाया कि तीन चार बार झूठ बोलने से कुछ नहीं होता हां सत्तर या अस्सी बार झूठ बोलोगे तो कहा हुआ सच साबित हो जाएगा। किसी नए व्यक्ति ने बताया कि इक्कीस बार गलत बात सुनने से भी संक्रमण हो सकता है। नई बात सुनने में आ रही है एक घंटा लगातार खांसने से बुरे लक्षण पैदा हो सकते हैं। नेता कैसे चुप रहते, कह डाला कि हवा से हो सकता है, कौन सी हवा से? घर के बाहर चल रही हवा से या कमरे के अन्दर पंखे, कूलर या एसी की हवा से। छत पर बह रही हवा से या उस हवा से जो मास्क के अन्दर फ़िल्टर होकर आती है। शातिर किस्म की कुछ हवा तो एन.पचानवे वाले यशस्वी मास्क से लिपटकर, छूकर नाक से शरीर में प्रवेश कर ही जाती होगी।

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पडोस की नाली से बदबू आनी बंद हो जाए तो इम्युनिटी बढ़ सकती है। धूप में खड़े हों और गंजे सिर पर टोपी न लगाई हो तो क्या संक्रमण के कीटाणु मर जाते होंगे। मेडिकल वालों से पूछकर सेनिटाइज़र में परफ्यूम टपकाने से इसकी बिक्री बढ़ गई है, इससे ज़िंदगी महकेगी और बहकेगी भी। आम शरीर को चाहे थोड़ा बहुत कुछ हो जाए कम्पनी को कुछ नहीं हो सकता। अब तक यह खुशी की बात है कि भ्रष्टाचार, जमाखोरी, अधर्म की रक्षा करने, दूसरों का हक छीनने, अनैतिक कार्य करने, लाशें नदी में फेंकने, गलत आंकड़े पकाने से कोरोना नहीं होता है। दूसरों को ठिगना, काला, नीचा, छोटा, घटिया समझने से भी कुछ नहीं हो सकता। कई बार लगता है कि उनकी पसंद की बात न करो तो वे रिमोट से कोरोना करवा सकते हैं। अपने निगेटिव विरोधियों को पॉजिटिव घोषित करवा सकते हैं। जिसको चाहें पॉजिटिव से निगेटिव करवा सकते हैं। जिनके लिए कुछ मुश्किल नहीं होता उनके लिए सब मुमकिन होता है। अगर यह अफवाह स्थापित कर दी जाए कि वोट देने से कोरोना हो जाता है तो नए तंत्र का उदय हो सकता है। समाज यह मानने लग जाए कि नफरत फैलाने से भी कोरोना हो सकता है तो नई प्रेम क्रांति आ सकती है।

संतोष उत्सुक
(लेखक युवा व्यंगकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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