कांग्रेस की मजबूरी-गांधी परिवार जरूरी

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दृश्य एक : कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कश्मीर से कन्याकुमारी तक ‘भारत यात्रा’ पर निकले हैं। रास्ते में आयोजित तमाम जनसभाओं में वे भारत के आधुनिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के महत्व को समझा रहे हैं। दृश्य दो : कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने दिल्ली छोड़ लखनऊ को अपना ठिकाना बना लिया है। अगले विधानसभा चुनाव में वे कांग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री पद की प्रत्याशी होंगी। दृश्य तीन : कांग्रेस दफ्तर में शाम के चार बजे दस-बारह कार्यकर्ता चाय पी रहे हैं। सबने राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के ट्वीट को रीट्वीट कर दिया है और फेसबुक पर इन नेताओं के साथ अपनी तस्वीर पर आए लाइक्स को देखकर खुश हो रहे हैं।

कोई रोमांच नहीं जाहिर है, पहले दो दृश्य केवल कल्पना हैं। न राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर वापस आने को फिलहाल तैयार हैं, न ही ‘भारत यात्रा’ जैसी जनसंवाद की कोई विस्तृत योजना कांग्रेस की ओर से प्रस्तावित है। प्रियंका गांधी के लखनऊ बसने की सुगबुगाहट बस दिल्ली का उनका बंगला खाली कराते वक्त ही हुई थी। लेकिन तीसरा दृश्य हकीकत है। इसमें इतना और जोड़ा जा सकता है कि पहले दो दृश्यों की कल्पना इन कार्यकर्ताओं के सामने पेश की जाए तो वे रोमांचित हो उठेंगे। पर कांग्रेस में रोमांच गायब है। मोदी के नेतृत्व में देश आर्थिक ही नहीं, अन्य मोर्चों पर भी पस्त नजर आ रहा है। मुख्य विपक्षी पार्टी के लिए बड़ा अवसर है। लेकिन जैसी तैयारी और घेरेबंदी की जरूरत है, वह कांग्रेस नेतृत्व में नजर नहीं आती। राहुल और प्रियंका गांधी की ओर से रोजाना विभिन्न मसलों पर ट्वीट किए जाते हैं, पर उनकी आलोचना किसी आक्रोश की संगठित शक्ति बन जाए, ऐसी कोशिश नहीं दिख रही।

कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता भी स्थिति से बेचैन हैं। 23 वरिष्ठ नेताओं के एक समूह की ओर से पिछले दिनों कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी गई थी। बिहार में सरकार बनाने से विपक्षी महागठबंधन के चूक जाने के बाद इस समूह की ओर से फिर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कपिल सिब्बल जैसे नेता खुलकर नेतृत्व की कमजोरी पर सवाल उठा रहे हैं। दिक्कत यह है कि जिस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत हर स्तर पर नेतृत्व चुनने को रामबाण इलाज बताया जा रहा है, उस पर इस समूह के लोग भी पूरी तरह खरे नहीं उतरते। सिब्बल जैसे नेता सरकार रहने पर केंद्रीय मंत्री और न रहने पर सुप्रीम कोर्ट की वकालत के तय ढर्रे पर जिंदगी जीते हैं। संगठन खड़ा करने या उसमें योगदान देने की उनकी कोई भूमिका नजर नहीं आती। लेकिन क्या ऐसी कोई योजना है भी जिसके तहत ऐसे नेताओं के सामने स्पष्ट कार्यभार पेश किया जाए?

सोनिया गांधी ने आर्थिक, विदेशी और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों की समितियां जरूर बनाई हैं, लेकिन उनसे यह कमी पूरी होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसमें शक नहीं कि राहुल गांधी जैसा नेता मध्यमार्गी राजनीति में फिलहाल दूसरा नहीं है। कोरोना महामारी से लेकर अर्थव्यवस्था तक को लेकर राहुल गांधी लगातार जो आशंकाएं जता रहे थे, वे सब सही साबित हुई हैं। लेकिन वे दार्शनिक ज्यादा और राजनेता कम नजर आ रहे हैं। उन्होंने ‘फासीवाद’ से लेकर ‘मनुवाद’ तक को निशाना बनाते हुए कांग्रेस के शीर्ष से एक नई भाषा की गूंज दी है, लेकिन संगठन और जनाधार में इसे लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं है।

किसी भी संगठन में कार्यकर्ताओं के जूझने की दो वजहें होती हैं। एक तो विचारधारा, दूसरी स्वार्थ। केंद्र और ज्यादातर राज्यों में सत्ता से बाहर हो चुकी कांग्रेस में कार्यकर्ताओं का निजी स्वार्थ पूरा करने का ज्यादा सामर्थ्य नहीं बचा है और जो कार्यकर्ता विचारधारा की वजह से हैं, उनके सामने भी स्थिति अमूर्त है। जिस नई आर्थिक नीति और उदारीकरण की नीति को कभी कांग्रेस ने शुरू किया था, मौजूदा सरकार उसे ही बेलगाम घोड़े की तरह दौड़ा रही है। कांग्रेस की ओर से ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ को बढ़ावा देने की चाहे जितनी आलोचना की जाए, मूल नीतियों की न तो कोई समीक्षा की गई है और न उन्हें उलटने का कोई प्रस्ताव ही है। यह सच है कि उसने संगठन में दलित और पिछड़ी जातियों को हाल के दिनों में ज्यादा महत्व दिया है, लेकिन डॉ. आंबेडकर के ‘जाति उच्छेद’ के कार्यक्रम को अपनाने या निजी क्षेत्र में आरक्षण जैसी मांग करने का साहस उसके पास नहीं है।

ऐसे में सत्ता में दलित-पिछड़ी जातियों को सांकेतिक भागीदारी देकर अपने विस्तृत ‘हिंदुत्व प्रॉजेक्ट’ को पूरा करने में जुटी बीजेपी के सामने वह कोई गंभीर चुनौती पेश करे भी तो कैसे? गांधी परिवार की सीमा बताने वालों की कमी नहीं लेकिन यह भी सच है कि यह परिवार ही कांग्रेस की शक्ति भी है। जो भी नेता नेतृत्व पर सवाल उठा रहे हैं, उनमें किसी के पास अपना कोई राष्ट्रव्यापी आधार नहीं है। सचाई यह भी है कि राजीव गांधी की शहादत के बाद इस परिवार ने राजनीति से दूरी बना ली थी। कांग्रेस के पास पूरा अवसर था कि वह बिना गांधी परिवार के खड़ी हो जाए, लेकिन पार्टी पूरी तरह असफल रही। जाहिर है, कांग्रेस के लिए गांधी परिवार बोझ नहीं, मजबूरी है।

सवाल प्रतिबद्धता का कांग्रेस में अकेला गांधी परिवार है जिस पर कार्यकर्ता शर्त लगा सकते हैं कि वह महात्मा गांधी की हत्या करने वाली विचारधारा के सामने समर्पण नहीं करेगा। तमाम कमजोरियों के बावजूद कांग्रेस अब भी देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है और ऐसे कार्यकर्ताओं की कमी नहीं है जो मानते हैं कि राहुल गांधी इतिहास की पुकार हैं। लेकिन क्या किसी नए आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रम और जमीनी गतिशीलता के बगैर इस पुकार को एक ठोस जनाधार में बदला जा सकता है? इस सवाल का जवाब कांग्रेस नेतृत्व को भी ढूंढना होगा। खासतौर पर तब, जब वह मानता है कि आरएसएस और बीजेपी के हमले से ‘भारत’ नाम का विचार खतरे में है।

पंकज श्रीवास्तव
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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