मैदान पर कमेंट से घमासान

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अमेरिका में एक अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस के हाथों हुई हत्या के बाद से दुनिया भर में रंगभेद और नस्ली हिंसा के विरोध में माहौल बन गया है। इस घटना के बाद तमाम खिलाडिय़ों ने भी अपने ऊपर हुई नस्ली टिप्पणियों के बारे में बताया है। इस संबंध में पूर्व भारतीय क्रिकेटर लक्ष्मीपति बालाजी ने कहा, ‘नस्ली टिप्पणियां स्कूल, कॉलेज से लेकर हर क्षेत्र में देखने को मिलती हैं। पिछले दिनों वेस्ट इंडीज को टी-20 विश्व कप जिताने वाले कप्तान डैरेन सैमी ने भी 2014 में आईपीएल खेलने के दौरान कुछ साथी खिलाडिय़ों द्वारा उनको कालू कहने पर ऐतराज जताते हुए उनसे माफी मांगने को कहा। बाद में उन खिलाडिय़ों के यह कहने पर कि उन्होंने प्यार से कालू कहा था, वे माफी की अपनी मांग से पीछे हट गए। भारतीय खेलों की बात करें तो नस्ली टिप्पणियों का इसमें हमेशा से समावेश रहा है। पूर्वोत्तर राज्यों और दक्षिणी प्रदेशों से आने वाले खिलाडिय़ों को ऐसी टिप्पणियों का सामना अक्सर करना पड़ता है। भारत की अंतरराष्ट्रीय बॉक्सर सरिता देवी बताती हैं कि एक कोच हमेशा उन्हें जंगली ही कहते थे। वह कहती हैं कि पूर्वोत्तर राज्यों के नागरिकों का चेहरा थोड़ा भिन्न होने की वजह से उन्हें चिंकी या मोमो भी बोला जाता रहा है। बैडमिंटन खिलाड़ी ज्वाला गुट्टा भी अपने साथ हुए इस तरह के व्यवहार के बारे में बताती हैं। इन लोगों को ट्रेनों और बसों में सफर करते समय तंग किए जाने की भी शिकायतें आती रही हैं। दक्षिण भारतीय खिलाडिय़ों को मैदान में मद्रासी कहकर पुकारा जाना भी आम बात रही है।

भारत को 1980 के मास्को ओलिंपिक में आखिरी हॉकी स्वर्ण पदक दिलाने वाले कप्तान वासुदेवन भास्करन बताते हैं कि ‘पटियाला में खेलते हुए जब मेरे पास गेंद आती तो दर्शक चिल्लाते थे, कालिया पास दे।’ भास्करन कहते हैं कि ‘हमें नस्ली अंदाज की शुरू से आदत थी। मैं जब चेन्नई के लोयोला कालेज में पढ़ता था, तब मेरे साथ विजय अमृतराज और जयकुमार रोयप्पा भी पढ़ते थे। उस समय हमारे प्रोफेसर हम तीनों को डार्क, डार्कर और डार्केस्ट नाम से बुलाते थे।’ यह सही है कि भास्करन को ऐसी टिप्पणियों से कभी कोई फर्क नहीं पड़ा। पर ऐसी घृणामूलक टिप्पणियों से कोई खिलाड़ी आहत भी हो सकता है। हो सकता है इसके पीछे नस्ली भावना न हो, पर क्या हम इस तरह की भावनाएं व्यक्त करने से नहीं बच सकते हैं? अभी पिछले दिनों ही युवराज सिंह एक कार्यक्रम में यजुवेंद्र चहल के खिलाफ जाति सूचक शब्द का इस्तेमाल करके सोशल मीडिया पर फंस गए थे। उनकी टिप्पणी को चहल ने तो मजाक में लिया, पर अन्य लोगों द्वारा बनाए गए दबाव के कारण युवराज को माफी मांगनी पड़ी थी। क्रिकेट की बात करें तो मौजूदा समय में भारत की मर्जी के बगैर पाा भी नहीं खड़कता है। इसकी वजह क्रिकेट में अधिकांश पैसे का भारत से निकलना है। पर भारतीय क्रिकेटरों की आज जैसी हालत पहले नहीं हुआ करती थी। पहले भारतीय टीम के इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में खेलने जाने पर अक्सर उन्हें नस्ली टिप्पणियों का शिकार होना पड़ता था और अधिकांश मौकों पर हमारे खिलाड़ी चुप्पी साध जाया करते थे।

आकाश चोपड़ा बताते हैं, ‘हम जब 2008 में इंग्लैंड में लीग खेलने गए तो दक्षिण अफ्रीकी खिलाड़ी हमेशा मुझे पाकी कहकर बुलाते थे।’ भारतीय क्रिकेटरों के खिलाफ ऐसी टिप्पणियां करना आम बात थी। लेकिन 2008 में भारत में आईपीएल शुरू होने के बाद से विश्व क्रिकेट का माहौल एकदम से बदल गया है। आईपीएल ने विश्व क्रिकेट में भारत की धमक बना दी। इसकी वजह यह है कि इस टी-20 लीग ने दुनिया भर के क्रिकेटरों को मालामाल कर दिया है। इस कारण अब दुनिया भर के मौजूदा और पूर्व क्रिकेटर भारत के खिलाफ कोई भी खराब टिप्पणी करने से बचने लगे हैं। उन्हें लगता है कि वे विराट कोहली और रोहित शर्मा जैसे क्रिकेटरों के खिलाफ टिप्पणी करके करोड़ों रुपये की कमाई से हाथ धो सकते हैं। पिछले कुछ सालों में भारतीय खिलाडिय़ों के खिलाफ नस्ली टिप्पणियां कम हो गई हैं। यह कहावत सही जान पड़ती है कि पैसा अच्छे- अच्छों को दबा देता है।

आईपीएल के माध्यम से विश्व क्रिकेट पर भारतीय दबदबा बनने से पहले ऑस्ट्रेलिया दौरे का मंकीगेट कांड हमारी यादों को झिंझोड़कर रख देता है। यह घटना 2007-2008 में भारतीय टीम के ऑस्ट्रेलिया दौरे की है, जब ऑस्ट्रेलियाई ऑलराउंडर एंड्रयू सायमंड्स ने हरभजन सिंह पर खुद को मंकी कहने का आरोप लगाया था। इस पर मैच रेफरी ने हरभजन पर तीन मैच का बैन लगा दिया था।नस्ली पूर्वाग्रहों पर इस विश्वव्यापी बहस के बीच यह सच्चाई गौर करने लायक है कि लोगों की कमजोरियों को निशाना बनाना कुछ भारतीयों की आदत में शुमार है। ऐसे में सवाल है कि क्या किसी को कालू, पतलू या गूटू कहना हर हाल में नस्ली टिप्पणी ही माना जाएगा। ऐसी बहस को हां या ना जैसे किसी एक निष्कर्ष से खत्म करना उचित नहीं है, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि कोई भी नतीजा निकालने से पहले टिप्पणी के पीछे की भावना का ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए।

मनोज चतुर्वेदी 
(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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