चीन को चार देशों की दो टूक

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लद्दाख में भारत और चीन की वास्तविक नियंत्रण रेखा पर एक किस्म की शांति बनी है। दोनों देशों के बीच तनाव कम करने के उपायों पर लगातार चर्चा हो रही है। कूटनीतिक और सैन्य दोनों स्तरों पर बातचीत चल रही है। इसलिए गतिरोध और तनाव के बावजूद हालात बिगाड़ने वाली कोई स्थिति नहीं बन रही है। पर ऐसा नहीं है कि इससे चीन के प्रति सद्भाव बन गया है। भारत को चीन की विस्तारवादी नीतियों का अंदाजा है और भारत के साथ साथ कम से कम तीन और देश- अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान इस चिंता में शामिल हैं। भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान ने जो एक नया समूह- क्वाड बनाया है उसकी एक अहम बैठक जापान में हुई है। इस बैठक में चारों देशों ने चीन को दो टूक अंदाज में संदेश दिया है कि वह अपनी मनमानी बंद करे।

चार देशों की इस बैठक का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण के बावजूद चारों देशों के विदेश मंत्री शारीरिक रूप से इस बैठक में शामिल होने टोक्यो पहुंचे थे। अमेरिका में केसेज बढ़ रहे हैं और राष्ट्रपति चुनाव का प्रचार अपने अंतिम चरण में हैं इसके बावजूद विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने टोक्यो में हुई इस बैठक में हिस्सा लिया। माइक पोम्पियो चीन को लेकर सबसे दो टूक अंदाज में बोलते रहे हैं। लद्दाख में भी तनाव के बावजूद भारत ने जिस अंदाज में प्रतिक्रिया दी, उससे तीखी प्रतिक्रिया पोम्पियो की रही है। टोक्यो से भी उन्होंने यहीं संदेश दिया है कि दुनिया अंतरराष्ट्रीय कानूनों से ही चलेगी और किसी देश को भी इसके उल्लंघन की इजाजत नहीं होगी।

टोक्यो बैठक में चारों देशों ने ‘कानून आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था’ पर जोर दिया। इस व्यवस्था में सभी देशों की कुछ जिम्मेदारी तय की गई है और देश चाहे छोटा हो या बड़ा उसकी संप्रभुता और सीमा का सम्मान हर देश को करना होता है। ‘कानून आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था’ की बात करने के साथ साथ भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ‘खुले और स्वतंत्र हिंद-प्रशांत क्षेत्र’ की बात कही। उन्होंने कहा कि सभी देशों की भौगोलिक सीमा और संप्रभुता का सम्मान किया जाना चाहिए और किसी भी विवाद का बातचीत के जरिए शांतिपूर्ण समाधान निकाले का प्रयास होना चाहिए। यह बात उन्होंने चीन को लक्ष्य करके ही कही है क्योंकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन अपनी दादागीरी करना चाहता है।

भारत के मुकाबले अमेरिका का संदेश ज्यादा दो टूक था। भारत ने चीन पर हमला करते हुए कोई खास संदर्भ नहीं दिया पर माइक पोम्पियो ने दक्षिण चीन सागर में चीन की घुसपैठ का मुद्दा उठाया, पूर्वी चीन सागर में उसकी दखल की आलोचना की, मेकांग में उसकी गतिविधियों की आलोचना की, भारत से साथ तनाव बढ़ाने और ताइवान के साथ जोर-जबरदस्ती की नीति के लिए उसको कठघरे में खड़ा किया। उन्होंने चीन के अंदर भ्रष्टाचार और नागरिकों के साथ होने वाली जोर-जबरदस्ती के लिए भी चीन की आलोचना की। इतना ही नहीं अमेरिकी विदेश मंत्री ने कोरोना वायरस के बारे में शुरुआती सूचना छिपाने का आरोप भी लगाया और यह भी कहा कि चीन के जिन बहादुर नागरिकों ने इस बारे में दुनिया को एलर्ट किया उनकी आवाज खामोश की गई। हो सकता है कि अमेरिका में चल रहे राष्ट्रपति चुनाव से पहले अमेरिकी नागरिकों के प्रभावित करने के मकसद से पोम्पियो ने इतना सीधा हमला किया और चीन को जिम्मेदार ठहराया पर उन्होंने जो बातें कहीं वह इस क्षेत्र के बाकी सारे देशों की भी चिंता का कारण है।

कारोबार से लेकर सैन्य मामलों में अमेरिका की आक्रामकता से कई देश परेशान हैं। ताइवान की चुनी हुई सरकार को अमेरिका ने परेशान किया है तो भारत को पूर्वी और उत्तरी दोनों सीमाओं पर बुरी तरह से घेरा है। वह अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा कर रहा है तो डोकलाम में बड़ा इलाका घेर कर बैठा है। पूर्वी लद्दाख के देपसांग में उसने भारत की जमीन हड़पी है तो पारंपरिक रूप से भारतीय सैनिकों के पेट्रोलिंग वाले कई इलाकों में भारतीय सैनिकों की गश्त रूकवाई है। भारत इससे परेशान है, इसके बावजूद टोक्यो में चार देशों की बैठक में भारत की प्रतिक्रिया सधी हुई थी। इससे यह भी जाहिर होता है कि भारत अभी चीन के साथ चल रही वार्ताओं को बाधित नहीं करन चाहता है। भारत का पहला सरोकार सीमा पर शांति बहाल करने की है। भारत को लग रहा है कि इन वार्ताओं से सीमा पर शांति बहाल हो सकती है।

इसके बाद ही चीन की विस्तारवादी नीतियों का कूटनीतिक तरीके से मुकाबला हो सकता है। उसकी वन बेल्ट, वन रोड की योजना से भारत और दूसरे कई देश परेशान हैं तो ईरान और पाकिस्तान के साथ उसका गठजोड़ भारत, अमेरिका सबके लिए चिंता का कारण बना है। ऐसे में क्वाड से उम्मीद की जा रही है वह चीन को नियंत्रित करने में निर्णायक भूमिका निभाएगा। इसकी पिछले कुछ समय की गतिविधियों को देख कर और अमेरिका के रुख के कारण भी अनेक सामरिक व कूटनीतिक जानकार इसे एशिया का नाटो कहने लगे हैं। जिस तरह से यूरोपीय देशों ने नाटो का गठन किया है उसी तरह से, क्वाड को एशिया का नाटो कहा जा रहा है। हालांकि नाटो की तरह प्रभावी होने में इसे समय लगेगा। दूसरे, चीन के खिलाफ किसी तरह के सैन्य अभियान की संभावना इसमें कतई नहीं देखी जा सकती है। सो, चाहे क्वाड हो या उसे एशियाई नाटो कहें, अगर इसका मकसद चीन के विस्तारवाद को रोकना है तो उसके लिए कूटनीतिक और आर्थिक रास्तों से ही आगे बढ़ना होगा। चीन को ताइवान से लेकर हांगकांग और तिब्बत तक तक जिम्मेदार ठहराना होगा, अपने नागरिकों के मानवाधिकार बहाल करने के लिए बाध्य करना होगा और पड़ोसी देशों की सीमाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करानी होगी।

अजीत द्विवेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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