सरकार और समाज दोनों को आगे आना होगा

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अपने घर लौट रहे श्रमिक वर्तमान में भले ही असहाय हों परन्तु इनका राष्ट्र व अर्थव्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण योगदान है। कोविड-19 के प्रकोप में शायद इसी वर्ग को सर्वाधिक परेशानी उठानी पड़ी है। बेरोजगारी का दंश झेल रहे श्रमिकों
के प्रति सरकार व समाज दोनों को ही अपना कर्तव्य निभाना होगा। अगर प्रवासी श्रमिकों को समाज तथा सरकार की तरफ से यथोचित सहायता नहीं मिली तो न केवल सामाजिक तानाबाना प्रभावित होगा वरन देश की प्रगति का पहिया भी रुक सकता है। यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि इतनी संख्या में श्रमिकों का पलायन क्यों हो रहा है? राज्य सरकारों का दावा है कि इंतजाम पुख्ता किये गये हैं परंतु वास्तविकता कुछ और ही दिखाई दे रही है। अगर इंसान ठीक होते तो इतनी बड़ी संख्या में श्रमिकों का पलायन अपने घर की तरफ क्यों होता? श्रमिकों ने सैकड़ों किलोमीटर पैदल यात्रा की है। इस यात्रा के दौरान कई यात्रियों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी। केन्द्र सरकार को अगर श्रमिकों को घर भेजने का फैसला लेना था तो इस फैसले में देर क्यों हुई? क्यों नहीं विशेष ट्रेनें पहले ही चलाई गयीं? अगर विशेष ट्रेन पहले ही चला दी गयी होती तो श्रमिकों को टैंकरों, ट्रकों व पैदल नहीं आना पड़ता। इन प्रवासी श्रमिकों के साथ छोटे-छोटे बच्चे व गर्भवती महिलाएं भी थीं, जिन्हें कठिन यात्रा करनी पड़ी।

महानगरों में कार्यरत ये श्रमिक कोरोना के आसानी से शिकार बन सकते हैं क्योंकि वे जिस स्थान पर रहते हैं वहां पर घनी आबादी होता है। यहां तक कि एक कमरे में कई लोग रहते हैं। दुर्भाग्यवश अगर कोई संक्रमित हुआ तो सबको संक्रमित होने की संभावना हो जाती है। देश के इतिहास में इतनी बड़ी संख्या में श्रमिकों का पलायन पहली बार हो रहा है। प्रवासी श्रमिकों की संख्या देश व प्रदेश की सरकार के विकास के दावे की पोल खोल देती है। स्वरोजगार व मनरेगा जैसी योजनाओं के रहते किन परिस्थितियों में श्रमिकों को अपना घरबार छोड़कर रोजगार की तलाश में महानगरों में जाना पड़ा। अगर रोजगार की व्यवस्था श्रमिकों को अपने मूल निवास के आसपास ही मिलता तो यह स्थिति नहीं आती। इसका मुख्य कारण है कि एसी वाहनों तथा हवाई जहाज से चलने वाले तथा एसी कमरों में बैठकर विकास की नीति बनाने वालों ने शहरों का तो अंधाधुंध विकास किया परंतु गांवों में उनको अपने हाल पर छोड़ दिया। छोटे शहरों, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के साधन कम होते गये। छोटे शहरों के परम्परागत उद्योग धंधे या तो बंद हो गये या तो बंद होने की कगार पर हैं।

सरकारों ने योजनाएं तो खूब बनाईं परंतु उनका हश्र या हुआ, यह पलायन कर रहे श्रमिकों की संख्या से देखा जा सकता है। अब देखना है कि लॉकडाउन के बाद इन श्रमिकों को उचित रोजगार अपने निवास स्थान के पास ही उपलब्ध हो। प्रवासी श्रमिक अधिकांशत: ग्रामीण क्षेत्रों के हैं। यूपी में जायद की खेती बहुत कम होती है। रवि की फसलें कट चुकी हैं, अत: गांवों में कृषि से संबंधित रोजगार जून के माह के अंत से शुरू होगा। हालांकि जिन श्रमिकों के पास खेती है, उन्हें खाने-पीने की उतनी दिक्कत नहीं होगी परंतु भूमिहीन श्रमिकों का या होगा? उन्हें तो खाने के लिए अनाज जुटाना मुश्किल होगा। ऐसे में उनकी स्थिति का आंकलन करना दारुण होगा। एक समस्या और भी है कि अगर ये श्रमिक पुन: अपने काम पर नहीं लौटे तो शहरों के निर्माण कार्य व कल-कारखाने कैसे चलेंगे? फेरीवाले, रिशे वाले, ठेले वाले तथा ऐसे ही छोटे-छोटे कार्य करने वाले समाज के जीवन्त घटक होते हैं। इनके बिना शहरीकरण की कल्पना करना बेमानी है। शहर की जिंदगी व देश का विकास थम सा जायेगा। प्रवासी मजदूरों की कठिन स्थिति को देखते हुए समाज व सरकार दोनों को ही आगे आना होगा। केवल दिखावा व घोषणा से काम नहीं चलेगा। कठिन समय में यदि इन निर्माण शिल्पियों का साथ नहीं दिया गया तो इतिहास इस वर्तमान को माफ नहीं करेगा।

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