हमारी रोजमर्रा की राजनीति में बोरियत भरी बाइनरी (यानी स्पष्ट दो विकल्प, जिसमें से एक ही चुना जाए) है। उन विकल्पों की बारीकियां समझने की बजाय, हमारा मौजूदा सोशल मीडिया विमर्श इसे बदतर बना रहा है। हम अब भी दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ, साम्यवाद बनाम अबंधता, सरकारी पूंजीवाद बनाम निजी उपक्रम, अमेरिका बनाम रूस में फंसे हैं।
हमारे पास भारत बनाम पाकिस्तान, स्थानीय व्यापार बनाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी है। और हां, नीतियों का मजाक उड़ाने वाली पारंपरिक बाइनरी भी हैं, जैसे अमीर बनाम गरीब, सूट-बूट बनाम किसान। कई लोगों की जिंदगी क्रिकेट मैदान जैसी हो गई है, जहां दो टीम एक-दूसरे के सामने खड़ी की जा रही हैं। आप और मैं पहले पसंद की टीम का समर्थन कर पाते थे। लेकिन अब एक बाधा है। राष्ट्रवाद। राष्ट्रवाद आपको वो पक्ष चुनने को मजबूर करता है, जो आपको चुनना चाहिए, न कि जो आपको पसंद है।
गलती से आपने राजनीतिक रूप से गलत पक्ष चुन लिया तो वेतन पाने वाले हजारों ट्रोल आप पर हमला कर देंगे। लेकिन तब क्या होता है, जब दो अन्य के बीच चुनना हो? जब ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान के खिलाफ या इंग्लैंड, न्यूजीलैंड के खिलाफ खेले? जवाब आसान है। पाकिस्तान दुश्मन है, हमें ऑस्ट्रेलिया को चुनना चाहिए। इंग्लैंड ने हमपर राज किया, हमें न्यूजीलैंड का समर्थन करना चाहिए। लेकिन जरा रुकिए। ऑस्ट्रेलिया की तुलना में, पाकिस्तान और हमारे बीच ज्यादा समानताएं हैं।
इंग्लैंड के साथ भी हमारा 200 वर्ष का साझा इतिहास है। लेकिन ये सब अब मायने नहीं रखता। संक्षेप में, राष्ट्रवाद हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति पर हमला कर रहा है। और विज्ञान पर भी। यह हमसे एक तय दिशा में सोचने की उम्मीद करता है। हमारे टैगोर जैसे कुछ महान विचारकों ने इसके बारे में चेतावनी दी थी। इतिहास बताता है कि उन्होंने तर्क दिया था कि राष्ट्रवाद समझदार देशों को घोर लापरवाह बना देता है।
वह त्वरित राजनीतिक प्रतिफल देता है, लेकिन ऐसा इसलिए क्योंकि ज्यादातर लोग राष्ट्रवाद को देशभक्ति समझ लेते हैं। हमारे मामले में राष्ट्रवाद हमें असली भारत की खूबसूरती और शक्ति के प्रति अंधा बना रहा है। हम अपनी सबसे कीमती संपत्ति को नजरअंदाज कर रहे हैं: हमारी संस्कृतियों की बहुलता, हमारे जीने के अलग-अलग तरीके, हमें परिभाषित करने वाले हमारे अनोखेपन, विचारों और आस्थाओं की विविधता, सैकड़ों भाषाओं और बोलियां और उनके शानदार इतिहास।
नतीजतन, हमारे मतभेदों को अपनाने की जगह, हम ध्रुवीकरण करने वाली बहस के आकर्षण में फंस रहे हैं। और ये बहसें हमेशा बाइनरी से शुरू होती हैं। बाइनरी हमें बांटती हैं। धर्म, जाति, समुदाय की बाइनरी।एक समय था जब राजनीति में कई विकल्प होते थे। तब कम से कम 6 दक्षिणपंथी कम्युनिस्ट पार्टियां थीं। इसमें मुख्यधारा वाली थीं सीपीआई और सीपीआईएम। कनु सान्याल के नेतृत्व वाली सीपाआई-एमएल भी थी, जो अब नक्सल और माओवादी समूहों में बिखर गई है और ज्यादातर अंडरग्राउंड रहती है।
तब सीपीआई-एमएल का मुख्य निशाना सीपीआई-एम के नेतृत्व वाला लेफ्ट फ्रंट होता था, जिसने बंगाल पर 34 साल राज किया। सीपीईआई-एम ने सत्ता में अपना सर्वश्रेष्ठ मौका गंवा दिया, जब पोलितब्यूरो ने ज्योति बसु को भारत का प्रधानमंत्री बनने की अनुमति नहीं दी। विपक्ष में हर कोई उन्हें चाहता था, वे भी तैयार थे। लेकिन सीपीआई-एम के घिसे-पिटे नेतृत्व ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। तभी से पार्टी कमजोर होने लगी। फिर थे समाजवादी। उन दिनों कांग्रेस समेत हर दूसरी पार्टी खुद को समाजवादी कहती थी।
ऐसी कम से कम 25 (क्षेत्रीय समेत) पार्टियों थीं। उन्होंने जयप्रकाश नारायण और चंद्र शेखर जैसे नेता दिए। उनमें से कई पार्टियां अब भी हैं, लेकिन उनका जोश खो गया है। कांग्रेस का भी यही हाल है। कई लोग मानते हैं कि गांधियों के हटने पर भी यह पार्टी बच सकती है। लेकिन भाजपा सुविधाजनक बाइनरी को बढ़ावा देती रहती है: भाजपा बनाम कांग्रेस। वास्तविक बाइनरी है: भाजपा बनाम ‘जो भी जीत सके’।
आज पूरे दक्षिणपंथी खेमे पर भाजपा का कब्जा है। अपनी काल्पनिक बाइनरी को बनाए रखने के लिए भाजपा कमजोर कांग्रेस से उलझती रहती है, जो खुद को इकलौता विपक्ष समझती है। इस तरह कांग्रेस ऐसी लड़ाइयां लड़ रही है, जिनसे यह भाजपा को नुकसान पहुंचाने के लिए आसानी से बच सकती है। जैसे बंगाल में वह ममता के वोट बैंक को बांटकर भाजपा की मदद कर रही है।
प्रीतीश नंदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और फिल्म निर्माता हैं ये उनके निजी विचार हैं)