एमएसपी बचाने की लड़ाई

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सरकार की ओर से किसानों को भेजा गया प्रस्ताव अमान्य किए जाने के बाद स्थिति तनावपूर्ण हो गई है। अभी तक हरियाणा के प्रवेश द्वार पर ही किसानों के बड़े जमावड़े दिख रहे थे। अब संगठनों ने इसे व्यापक रूप देने के लिए उत्तर प्रदेश और राजस्थान के मुख्य आगमन केंद्रों पर भी नाकेबंदी की योजना बनाई है। प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री द्वारा लोकसभा में घोषणा किए जाने के बाद भी किसानों में भरोसे की कमी बरकरार है। कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य विधेयक-2020 में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) या सरकारी खरीद का कोई उल्लेख नहीं है। विधेयक का मकसद किसानों और व्यापारियों को मंडियों के बाहर उपज के क्रय-विक्रय की स्वतंत्रता देना है।

एमएसपी और खरीद एमएसपी और खरीद पूरी तरह से दो अलग-अलग मुद्दे हैं। एमएसपी न तो पहले किसी कानून का हिस्सा थी और न ही आगे किसी कानून का हिस्सा बनेगी। एमएसपी एक सरकारी नीति है, जो प्रशासनिक फैसले लेने का हिस्सा मात्र है। उसके क्रियान्वयन को अनिवार्य बनाने वाला कोई कानून मौजूद नहीं है। अफसोस की बात है कि एमएसपी की सिफारिश करने वाली संस्था कमिशन फॉर एग्रिकल्चर कॉस्ट्स एंड प्राइसेज (सीएसीपी) को भी वैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं है। सीएसीपी स्वयं संसद के अधिनियम के जरिए बना कोई वैधानिक निकाय नहीं है। इसके द्वारा की गई सिफारिशें सरकार को मान्य हों, ऐसा भी कोई कानून नहीं है।

1947 से पूर्व स्थिति और भी भयावह थी। ब्रिटिश काल में किसानों को अपनी उपज बेचने पर उचित दाम मिलने का कोई मैकेनिज्म नहीं था। खरीद और दाम तय करने की संपूर्ण प्रक्रिया बाजार के हवाले थी। चौधरी चरण सिंह ने साल 1938-39 में उस समय की खराब परिस्थितियों को अपने लेखों के जरिए बयां किया है- ‘बाजार में पहुंचते ही खेतिहर का सामना होता है आढ़तियों से, फिर रोला (उपज को साफ करने वाला) से, तौलने वाले से, ओटा (थैले का मुंह खोलने वाला) से, पल्लेदार (थैलों को ढोने वाला) से। इन सभी को, बिना किसी अपवाद के, मेहनताना विक्रेता को ही देना पड़ता है। बाजारों में जहां व्यापार संघ या बाजार पंचायत होती है, निश्चित बाजार शुल्क और मुनीम जैसे छोटे कर्मचारियों, पानी पिलाने वाले, चौकीदार, रसोइया इत्यादि का भुगतान आढ़ती करता है। हालांकि भारी तादाद में मौजूद उन बाजारों में संगठित व्यापार का अस्तित्व ही नहीं होता। इस आशय की कटौती जो बहुधा काफी बड़ी राशि होती है, विक्रेताओं से की जाती है। मौजूदा हालात में किसान कुछ मामलों में उपभोक्ता द्वारा चुकाए गए 1 रुपए में से मात्र 9 आना ही प्राप्त कर पाता है। इसका अर्थ है कि उपभोक्ता द्वारा चुकाए गए गेहूं, धान, गुड़ के मूल्य का 42% बिचौलियों के पास चला जाता है।’

चौधरी चरण सिंह के इन सुझावों का असर संयुक्त पंजाब (हरियाणा, पंजाब और लाहौर प्रांत) के राजस्व मंत्री चौधरी छोटू पर दिखा, जिन्होंने वहां के किसानों को इस लूट से बचाने के लिए कई क्रांतिकारी कदम उठाए। इसमें बाजार के व्यापारियों, बिचौलियों और तौलने वाले को लाइसेंस देने, उनसे लिए जाने वाले शुल्क को तय करने आदि नियम शामिल थे। तराजुओं, बांटों और मापों की जब्ती के लिए भी अलग प्रावधान किया गया ताकि तौल संबंधी कोई त्रुटि ना हो। आजादी के बाद मूल्य निर्धारण और क्रय-विक्रय की सभी शक्तियां यथावत बाजार की ताकतों के हाथ में बनी रहीं। प्रधानमंत्री पंडित नेहरू सोवियत संघ के आर्थिक नियोजन से प्रभावित होकर औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए बड़े-बड़े कारखानों के निर्माण में लग गए, जबकि गांव और कृषि तात्कालिक तौर पर उपेक्षित रहे।

जहां पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि मदों के लिए 30 प्रतिशत से अधिक धनराशि का आवंटन किया गया था और औद्योगिक क्षेत्रों को मात्र 15% राशि मिली, वहीं दूसरी और तीसरी पंचवर्षीय योजनाओं में प्राथमिकताओं की इस कदर अदला-बदली हुई कि उद्योगों के लिए 35 फीसदी और कृषि क्षेत्र के लिए मात्र 15 फीसदी राशि आवंटित की गई। उसी का नतीजा है कि जहां समूचे देश के विभिन्न भागों में बड़े उद्योगों की भरमार है, वहीं भारत की 50% से अधिक भूमि असिंचित है। 1962 की शर्मनाक पराजय ने पंडित नेहरू को भी विचलित किया और देश में अकाल जैसे हालात भी पैदा हो गए। लिहाजा अमेरिकी शर्तों पर पीएल-480 के तहत गेहूं मंगाना पड़ा, जो भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए अभिशाप से कम नहीं था।

1965 के युद्ध के बाद खाद्य पदार्थों के दाम आसमान छू रहे थे और जमाखोरी तथा कालाबाजारी अपने चरम पर थी। उसी माहौल में 1966-67 के लिए पहली बार न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की गई। स्थानीय सरकारी एजेंसी के जरिए खरीद कर एफसीआई और नेफेड के गोदामों में भंडारण की सुविधा उपलब्ध कराई गई ताकि बाद में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए जरूरतमंदों और गरीबों को कम कीमत पर राशन मुहैया कराया जा सके। इस संस्था को कृषि मूल्य आयोग का नाम दिया गया। 1985 में एक संशोधन के द्वारा इसमें लागत को भी जोड़ दिया गया। इस आयोग द्वारा तैयार प्रारूप सभी राज्यों को भेजकर उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर सर्वमान्य औसत पर एमएसपी तय की जाती रही है।

मूल्य तय करने वाले कारक कृषि मूल्य निर्धारण के मुख्य कारकों में फसल की प्रति हेक्टेयर लागत, खेती के दौरान होने वाला खर्च और अगले वर्ष के संभावित बदलाव, प्रति क्विंटल अनाज उगाने की लागत, अनाज उगाने के दौरान होने वाला खर्च, प्रति क्विंटल बाजार में कीमत, किसान द्वारा बेचे जाने वाले अनाज की कीमत और खरीदने वाली चीजों की कीमत, एफसीआई और नेफेड की भंडारण क्षमता, एक परिवार पर खपत होने वाला अनाज और एक व्यक्ति पर खपत होने वाले अनाज की क्षमता शामिल हैं। फिर भी किसान संगठन सरकार द्वारा घोषित मूल्य को अपर्याप्त मानकर निरंतर इसमें बढ़ोतरी की मांग करते रहे हैं। ऐसे में न्यूनतम समर्थन मूल्य में कटौती की जरा सी भी आहट उन्हें बैचेन कर देती है। वर्तमान असंतोष उसी का कारण है।

केसी त्यागी
(लेखक जेडीयू के प्रधान महासचिव हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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