क्या सत्ता को सख्त, गुस्सैल माता-पिता की तरह होना चाहिए, जो हमेशा अपनी तरह से काम करना चाहते हैं, सिर्फ यह साबित करने के लिए कि वे जानते हैं कि बच्चों के लिए क्या अच्छा है? या सत्ता को समझदार और दयालु माता-पिता जैसा होना चाहिए, जो बच्चे को आजादी से बढ़ने दें और कभी-कभी गलती कर उनके नतीजों से सीखने दें? यह फैसला हर सरकार को करना है। और नागरिकों के पास उनकी पसंद मानने के अलावा कोई चारा नहीं है, क्योंकि हमने ही उन्हें सत्ता दी है, जैसे माता-पिता को अपने जीवन की बागडोर देते हैं।
क्रिप्टोकरंसी पर बैन ने मुक्त विकल्प पर रोक को लेकर चिंता बढ़ाई है। एक न्यूज रिपोर्ट के मुताबिक, करीब एक करोड़ भारतीयों के पास 10 हजार करोड़ मूल्य की डिजिटल संपत्ति है और क्रिप्टोकरंसी का काला बाजार उभरने पर उन्हें नुकसान होगा। ऐसा पहले भी हुआ है, जब भी हमने किसी चीज पर प्रतिबंध लगाया है।
उदाहरण के लिए शराब पर प्रतिबंध ने उसकी तस्करी और जहरीली शराब से मौतें बढ़ीं। लॉटरी या कैसिनो या क्रिकेट पर सट्टे जैसी गैर-कानूनी चीजों पर कई राज्यों में प्रतिबंध है। फिर भी आज इंटरनेट लॉटरियों की भरमार है और क्रिकेट पर सट्टा लगभग 4 लाख करोड़ रुपए पर है, जो हमारे रक्षा बजट से थोड़ा ही कम है।
मजेदार बात यह है कि आज जो बैन है, उसे कल अच्छा भी मान सकते हैं। सरकारें बदलती हैं। गलत-सही की धारणा बदलती है। रहस्यमयी सातोशी नाकामोटो की 2009 की शानदार खोज जल्द वैश्विक मुद्रा बनकर उभर सकती है। एक बिटकॉइन की कीमत आज 37 लाख रुपए है। क्या किसी को आरबीआई की क्रिप्टोकरंसी चाहिए? बिल्कुल नहीं। इससे इसे खोजने का उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा। यानी गुमनाम या स्वायत्त रहकर ब्लॉकचेन माइनिंग करना। दूसरी तरफ शराब सरकार की पुरानी दुश्मन है। शराब से मिलने वाला राजस्व और कर बहुत बड़ा है (2020 में 1.75 खरब रुपए), लेकिन इसे मानना राजनैतिक रूप से गलत मानते हैं । कुछ राज्यों में गुटखा और पान मसाला पर भी हास्यास्पद बैन हैं। दोनों ही आसानी से मिल जाते हैं।
सेंसरशिप भी कुछ अलग नहीं है। लेकिन अब कुछ भी लंबे समय तक सेंसर नहीं रहता क्योंकि हर चीज इंटरनेट के जरिए रास्ता बना लेती है। एक समय था जब सेंसरशिप बैन से भी बदतर थी। आपतकाल के वर्षों को देखें। अखबारों से हेडलाइन गायब होती थीं, कार्टून हटा दिए जाते थे। आपातकाल में सेंसर बोर्ड ‘किस्सा कुर्सी का’ नामक बी ग्रेड फिल्म में 51 कट चाहता था। लेकिन इंदिरा गांधी के लिए इतना काफी नहीं था। उन्होंने प्रिंट ही जलवा दिए। यह फैसला नादानी थी क्योंकि फिल्म तुरंत मशहूर हो गई और निर्माता अमृत नाहटा हीरो बन गए।
कश्मीर और दिल्ली के कुछ इलाकों में बार-बार इंटरनेट शटडाउन ने दुनिया का ध्यान बेवजह हमारी ओर खींचा। बेशक सरकार इसे इस तरह न देखे। कोई सरकार नहीं देखती। यह लोकतंत्र या फासीवाद के बारे में नहीं है। यह सत्ता के बारे में है। शक्ति का इस्तेमाल। अगर आप सरकार को अपने ऊपर शक्ति का इतना इस्तेमाल करने देंगे, तो वो करेगी। आप तब तक कुछ नहीं कर सकते, जब तक पूरी तरह टूट नहीं जाते, जैसे बच्चे मां-बाप के साथ करते हैं। इसलिए नहीं क्योंकि उनके माता-पिता बुरे हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि उनके लिए एक समय पर आजादी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है।
भारत में, हम ज्यादातर यही मानते हैं कि बच्चे हमेशा गलत होते हैं और माता-पिता ही सारे गुणों का सार होते हैं। बॉलीवुड ने भी मां की छवि सिलाई मशीन पर काम करती पीड़ित महिला की और पिता की छवि घर चलाने के लिए संघर्ष करते पुरुष की बनाई है, जिसे कोई समझ नहीं पाता। हमारे मिथकों और कथाओं ने भी इसी धारणा को बनाए रखा। और अनिच्छुक माता-पिता के पास इस आदर्श छवि को बनाए रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता, जबकि उन्हें अपनी तरह से जिंदगी जीनी चाहिए। बच्चों से भी अपनी आजादी छोड़कर आदर्श संतान बनने की उम्मीद की जाती है। नतीजा? ज्यादा बिखरे हुए परिवार। ज्यादा पागलपन।
सच यह है कि आजादी तब है, जब माता-पिता और बच्चे आपसी प्यार और सम्मान के साथ, मिलकर रहें। जहां एक-दूसरे का जोखिम उठाने में, गलतियां करने में, जिंदगी की खोज में साथ देते हैं। ऐसा ही सरकार और उसके नागरिकों के साथ है। उन्हें एक दूसरे की नादानियों के साथ रहना सीखना चाहिए। दमन कोई उपाय नहीं है। लोगों को सही और गलत के बीच अंतर सिखाने के लिए बैन और सेंसरशिप ही इकलौते तरीके नहीं हैं। कई प्रतिबंधित किताबें और फिल्मे आज क्लासिक मानी जाती हैं। अब नई पीढ़ी उन चीजों में नए गुण खोज नहीं, जिन्हें कभी हमें नकारने पर मजबूर किया गया था। दुनिया खुल रही है। वक्त है कि हम भी ऐसा करें।
प्रीतीश नंदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म निर्माता हैं ये उनके निजी विचार हैं)