संसद में अपने असाधारण भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पर टिप्पणी की कि आईएएस और यहां तक कि पूरा लोक सेवा समुदाय क्या बेहतर कर सकता है। खासतौर पर उन्होंने जिक्र किया, अ) प्राइवेट सेक्टर और लाभ कमाने वाली कंपनियों के प्रति तिरस्कार, शंका और निराशावाद के नकारात्मक रवैये में बदलाव की जरूरत है, ब) सवाल उठाया कि बाबुओं को हर चीज (खाद संयंत्र लेकर एयरलाइन तक) चलाने की क्या जरूरत है, स) जोर दिया कि प्राइवेट सेक्टर देश की प्रगति में बराबर का साझेदार है, द) पूछा कि भारत कहां पहुंचेगा अगर पूरा देश बाबुओं के हाथ में दें?
उन्होंने यह भी कहा, अ) समय बदल गया है। प्राइवेट सेक्टर को बेईमान कहना अतीत में राजनीतिक लाभदायक था, अब नहीं और ब) हमें धन बांटने की बात करने से पहले, धन कमाने वालों की जरूरत है।
ऐसे बयान बताते हैं कि देश के शीर्ष नेतृत्व की सोच कितनी बदली है, जो संयोग से लाखों भारतीय युवाओं की सोच भी है। ‘5 ट्रिलियन डॉलर जीडीपी का लक्ष्य’ वाली प्रगति निजी क्षेत्र की प्रगति के बिना असंभव है। और फिर भी, हमारे बाबू भारत की नई आर्थिक महत्वाकांक्षा के लिए खुद में बदलाव नहीं लाए। वास्तव में ‘बाबू’ अपमानजनक शब्द बन गया है, जिसका अर्थ ऐसा पुरातनपंथी, लालफीताशाह हो गया है, जो चीजों को धीमा करता है। लोक सेवा समुदाय को इसकी थोड़ी जिम्मेदारी लेने की जरूरत है।
हालांकि, पूरा दोष उन पर डालना उचित नहीं होगा। आईएएस (और अन्य लोक सेवक) ऐसे क्यों हैं, इसके पीछे कई कारण हैं, जिन्हें सुधार के लिए समझना जरूरी है। लोक सेवाओं का पूरी तरह अच्छा न होने के पीछे सबसे बड़ा कारण प्रदर्शन मापने की पुरानी संरचना है, जो यथास्थिति बनाए रखने को प्रोत्साहित करती है। एक लोक सेवक को कभी सकारात्मक बदलाव लाने के लिए नहीं सराहा जाता। हालांकि कुछ गलत होने पर उन्हें सजा जरूर मिलती है।
बड़े बदलाव लाने में जोखिम होता है। मान लीजिए किसी आईएएस अधिकारी को लगता है कि उसके विभाग की वेबसाइट खराब है और प्राइवेट कंपनी को नियुक्त करना चाहिए। इस पर अधिकारी को क्या प्रोत्साहन मिलेगा? क्यों न ज्यादा कुछ किए बिना तीन साल पद पर बने रहो, जब तक अगली नियुक्ति/पदोन्नति नहीं मिलती? अगर उसे प्राइवेट कंपनी नियुक्त करनी है तो हो सकता है कि अ) अनुमतियां पाने में मेहनत लगे, ब) कोई रिश्वत लेने का आरोप लगा दे, स) वेबसाइट उतनी अच्छी न बने, द) आप अन्य ‘निठल्ले’ सहकर्मियों को परेशान करें जो आपसे काम बढ़ाने पर नाराज होंगे।
अच्छी नई वेबसाइट बन भी गई, तो आईएएस अधिकारी को इसके बदले में कुछ नहीं मिलेगा। ऐसी दुविधा में अधिकारी क्या करेगा? कुछ नहीं, अगली नियुक्ति व पदोन्नति का इंतजार। भारत नौकरी में इस निठल्लेपन को नहीं सह सकता। विकृत प्रोत्साहनों के इस पहलू में लोक सेवकों की गलती नहीं है। उन्हें नियम बताए गए हैं कि अच्छा करना चाहते हो, तो कुछ मत करो। कभी भी।
अगर सरकार इसे बदलना चाहती है तो आईएएस और अन्य लोक सेवकों की प्रोत्साहन संरचना पूरी तरह बदलनी चाहिए। हालांकि व्यवस्थागत बदलावों की जरूरत है, लोक सेवकों को भी कुछ बदलना होगा। व्यवस्था गलत हो सकती है, लेकिन लोक सेवकों ने भी बड़े बदलाव के लिए तड़प नहीं दिखाई है। बेहद प्रतिस्पर्धी परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद लगता है कि वे भी मौजूदा व्यवस्था पसंद करने लगते हैं। निठल्लापन आरामदायक जो होता है और बदलाव लाने वाले को लगातार हतोत्साहित किया जा रहा है।
एक अरबपति कुछ पाने के लिए हाथ जोड़कर घर आएगा, इस ताकत, इस विचार की लत लग सकती है। तकनीक से भी बहुत अलगाव है, खासतौर पर बुजुर्ग वरिष्ठ अधिकारियों में। तकनीक शासन को बदल सकती है, अगर जिन पर जिम्मेदारी है, वो इसकी ताकत समझें। कई धीमी सरकारी वेबसाइट बताती हैं कि सरकार में बहुत लोग यूआई (यूजर इंटरफेस) या यूजर को ध्यान में रखते हुए वेबसाइट बनाना नहीं जानते।
इनमें से कुछ पहलू सुधारे जा सकते हैं और सुधार जरूरी है, क्योंकि ये भारत की गति धीमी कर रहे हैं। यह घोर पूंजीवाद को जन्म दे रहा है। यह भारत को 1980 के दशक में बनाए हुए है, जहां सरकारी माई-बाप आपको बिजनेस करने देते थे। जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा है, समय बदल गया है। लोक सेवक केवल प्रशासक न बनें, बल्कि प्रगति लाने वाले बनें। इसलिए शायद बेहतर होगा कि हम आईएएस को आईईएस में बदल दें। इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) से बदलकर इंडियन इनेबलिंग सर्विस (भारत को समर्थ करने वाली सेवा) कर दें। सिर्फ नाम से नहीं, भावना से भी।
चेतन भगत
(लेखक अंग्रेजी के उपन्यासकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)