वे मेरे जैसे लेखक नहीं थे, वे दूसरे टाइप के लेखक थे। मेरा काम लिखना और छपवाना था, उनका इससे दूर-दूर तक का नाता न था। दरअस्ल वे लेखक टाइप बुद्धिजीवी थे, जो गोष्ठियों में गहन विमर्श उनकी अध्यक्षता और कहीं व्याख्यान देते पाये जाते थे। मुझसे यह सब नहीं हो पाता था। कहीं कोई विचार मंत्रणा होनी होती तो उन्हें बुलाया जाता। कला केन्द्रों में भी उन्हीं की दरकार थी। लिखना और फिर उसे छपवाना वे इसे हल्की बात मानते थे। उनके कहे आप्त वचन छपते थे समाचार पत्रों में। उनका कोई सम्मेलन होता और उनकी सूची छपती तो मैं उन नामों को पहचान नहीं पाता। यह दिवालियापन मेरा था, इसमें उनकी तनिक भी गलती नहीं थी।
सुना था उन्होंने कभी लिखा था, और इतना प्रभावी लिखा थ कि उनका नाम हो गया और वे देश के बौद्धिक वर्ग की शिरकत करने में आगे आ गये थे। मैंने लाख कोशिश की कि मैं उन जैसा दूसरे टाइप का लेखक बन जाऊं, लेकिन एक तो लिखने की आदत नहीं छूट रही थी, दूसरा लोग उन जैसी पहचान मुझे दे भी नहीं पा रहे थे। सत्य तो यही है कि मैं दूसरे टाइप का लेखक बनना चाहता था, परन्तु शायद यह मेरे भाग्य में नहीं है। बात-बात में हंसना, सहज रहना, मजाक बाजी करना, ये मेरे कुटेव थे,जो मुझे दूसरे टाइप का लेखक नहीं बनने दे रहे थे। उनकी तरह रहना मेरे बस की बात नहीं थी। वे जो बोलते थे, मेरी समझ से परे था। सदैव गंभीर मुद्रा में आसमान को ताकना, चेहरे पर तनिक हास्य या आ जाये और नपा तुला बोलकर सबको हतप्रभ कर देना, उनकी अपनी फितरत और अंदाज था।
खूब लिखने-छपने के बाद भी वे मुझे नहीं जानते थे। पहली बात तो उन तक पहुंचना आसान नहीं था, फिर भी कभी कोई उनसे मिलवाता तो वे चालाकी से मुझे नजरअन्दाज कर जाते और मैं मन मसोसकर रह जाता। मेरी अपनी उत्कष्ठा थी कि वे मुझे जाने और मैं उन्हें जानूं। लेकिन ऐसा कभी संभव ही नहीं हो पाया, क्योंकि वे दूसरे टाइप के लेखक थेए मुझे इतना तो पता चल गया था उनमें से कुछ अंग्रेजी की दुनिया के थे, कुछ विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर थे, कुछ फिल्मी दुनिया के थे और कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के पहुंचे हुये और घुटे हुये थे। -पूरन सरमा