अशोका फिर खड़ा होगा..

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राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर और सरकार के मुखर आलोचक प्रताप भानु मेहता ने 16 मार्च को अशोका यूनिवर्सिटी से इस्तीफा दे दिया। उन्हें लगा कि वे ‘राजनीतिक बोझ’ बन गए हैं। वास्तव में यह एक त्रासदी है। यह दो आधुनिक भारतीय हीरो की कहानी है। एक ने साहस के साथ सत्ता को सच दिखाया, तो दूसरे ने आदर्श रूप से बेहतर दुनिया बनाने का प्रयास किया।

दोनों ने अपना कर्तव्य निभाया, लेकिन अंत भला नहीं हुआ। यह नफरत के युग में अहंकारी सरकार, कबीलाई राजनीतिक पार्टियां, असभ्य युद्धों से भरी बाहरी दुनिया की ‘त्रासद गलती’ थी, जिन पर हीरो का नियंत्रण नहीं था।

पहले हीरो आशीष धवन ने विश्वस्तरीय गैर-लाभकारी उदारवादी कला विश्वविद्यालय बनाने का सपना देखा था। वे कोलकाता के पेशेवर परिवार में जन्मे। स्कूलिंग के बाद उन्हें येल यूनिवर्सिटी के लिए स्कॉलरशिप मिली। वे हार्वर्ड बिजनेस स्कूल गए और फिर निवेश की दुनिया में। 30 की उम्र में भारत लौटे और क्रिसकैपिटल शुरू की। हमारी पहली मुलाकात तभी हुई।

उन्होंने मुझे बोर्ड से जुड़ने के लिए आमंत्रित किया। करीब 12 साल में कंपनी सफल हो गई और धवन ने शीर्ष पर पहुंचकर इसे छोड़ दिया। अपने जैसे आदर्शवादी आंत्रप्रेन्योर्स इकट्‌ठे कर उन्होंने सपने पर काम शुरू किया। 10 साल से करोड़ों खर्च कर वे जोश से अशोका यूनिवर्सिटी बना रहे हैं।

कहानी के दूसरे हीरो हैं प्रताप मेहता, जिनका जन्म जोधपुर के जैन परिवार में हुआ। स्कूलिंग के बाद वे भी विदेश गए। ऑक्सफोर्ड से BA किया और प्रिंसटन से राजनीति में पीएचडी। मेरी उनसे मुलाकात तब हुई जब वे हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे। वे भारत लौटे और सेंटर ऑफ पॉलिसी रिसर्च के प्रमुख बने। उन्होंने अपने लेखन के जरिए साहसिक निजी प्रतिष्ठा भी बनाई।

इस बीच अशोका खामोशी से उत्कृष्ट लिबरल शिक्षा का आधार बनाती रही। मैं भी अशोका को कुछ दान कर ‘संस्थापक’ बना। अशोका ने 2017 में प्रताप मेहता को बतौर वाइस-चांसलर जोड़ा। जल्द समस्या शुरू हो गई। सरकार के प्रति उनके सख्त मत यूनिवर्सिटी के लिए परेशानी बनने लगे।

हालांकि धवन ने मेहता को रोका नहीं। एक शाम मुझसे सुझाव मांगा गया। मैंने सलाह दी कि वे पूरी ताकत से लिखते रहें, लेकिन बायलाइन से ‘अशोका’ हटा दें। मेहता ने 2019 में वाइस-चांसलर पद छोड़ दिया, लेकिन प्रोफेसर बने रहे। एक परियोजना पर चर्चा के दौरान उन्होंने मुझसे कहा कि उन्हें ‘प्रशासनिक कर्तव्यों और अकादमिक रुचियों के बीच संतुलन बनाने में मुश्किल हो रही है।’

उनके पास ‘असीमित आजादी’ थी लेकिन पढ़ाने के लिए समय कम था। मुझे लगा सब ठीक है। इसीलिए जब मेहता ने इस्तीफा दिया तो मैं हैरान रह गया। अगले दिन सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रमणियम ने अशोका छोड़ दी क्योंकि वह ‘अकादमिक स्वतंत्रता की रक्षा में सक्षम नहीं थी।’ 90 फैकल्टी मेंबर ने मेहता का समर्थन किया। हार्वर्ड, येल, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, एमआईटी के 150 शिक्षाविदों ने स्वतंत्रता के लिए अशोका की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाए। अशोका की प्रतिष्ठा पर दाग लग गया।

मेहता ने इस्तीफा क्यों दिया था, यह किसी को नहीं पता। सरकार का कोई दबाव नहीं था। हालांकि, अशोक के 150 दानदाताओं में से कई मेहता द्वारा मोदी सरकार की आलोचना से नाराज थे। आश्चर्य नहीं कि दानदाता रूढ़िवादी हैं। यूनिवर्सिटी को चिंता थी कि अगर फंड खत्म हो गया, तो स्कॉलरशिप में कटौती, छात्रों की फीस बढ़ाने जैसे कदम उठाने पड़ेंगे। फिर भी, लगता नहीं कि किसी ने मेहता को इस्तीफा देने या लेखन रोकने को कहा था।

लेकिन खुद मेहता को धीरे-धीरे एहसास होने लगा कि वे राजनीतिक बोझ बन रहे हैं। और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। धवन की मिश्रित भावनाएं थीं। मतभेद के लिए प्रतिबद्ध एक वास्तविक उदारवादी के रूप में वे दुखी थे। लेकिन अशोका के रक्षक के रूप में उन्होंने राहत महसूस की।

त्रासदी यह है कि दो कर्तव्यनिष्ठ लोग वफादारियों के टकराव में फंस गए और एक उभरते संस्थान को चोट पहुंची। अशोका के लिए भविष्य में विश्वस्तरीय शिक्षक बुलाना मुश्किल होगा। त्रासदी और बड़ी है क्योंकि भारत को विश्वस्तरीय संस्थानों की जरूरत है और देश की इस महत्वाकांक्षा को यह बड़ा झटका है। सांत्वना यही है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ।

हार्वर्ड और येल ने भी शुरुआत में ऐसी चुनौतियां देखीं। इस त्रासदी से उबरने के लिए भावनाओं से उठकर पुनरुद्धार का सोचना होगा। अशोका में बहुत कुछ अच्छा है। धवन ने खामियां स्वीकार कर बदलाव का वादा किया है। दानदाता भी समझें कि उनका उपहार बिना शर्त है और संस्थापकों व संस्थान के बीच दीवार, एक लोकपाल नियुक्त किया जा रहा है। मुझे यकीन है, इस अग्निपरीक्षा से गुजरकर अशोका फिर खड़ा होगा।

गुरचरण दास
( स्तंभकार व लेखक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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