जहां धरती पर ऑक्सीजन की हाहाकार मची है, तभी वैज्ञानिकों ने चकित करने वाली घोषणा की। मंगल पर पहली बार ऑक्सीजन का उत्पादन किया। पहले प्रयास में सिर्फ 6 ग्राम ऑक्सीजन मिली, जो एक प्राणी को दस मिनट जिंदा रख पाएगी। लेकिन है तो एक सराहनीय शुरुआत। मंगल की हवा में ऑक्सीजन सिर्फ 0.1त्न है, जबकि पृथ्वी पर 21 फीसद। वहां मौसम बर्फीला है। जमीन बंजर है। फिर भी मनुष्य वहां अपना पैर जमाना चाहता है। अभी तो साइंस के नाम पर वहां रॉकेट भेज रहे हैं। लेकिन आगे हम कोई फायदा जरूर उठाना चाहेंगे। यानी आर्थिक वृद्धि। शायद मंगल पर बहुमूल्य खनिज हैं या फिर और कुछ, जिसका हमें अंदाजा भी नहीं। और मनुष्य के लालच की सीमा भी नहीं। आज तक हमने धरती पर युद्ध लड़े, हो सकता है भविष्य में अंतरिक्ष में ऐसे युद्ध लड़ें। ये ख्याल क्यों आ रहे हैं? आस-पास कोविड से हो रहे विनाश को देखकर। पुरातन संस्कृतियों में धरती को देवी या मां माना जाता था। ग्रीस या रोम, चीन या भारत। मगर पिछले सौ सालों में इस मां को हमने इतनी पीड़ा दी है कि मजबूर होकर वो हमें चीख-चीखकर संदेश दे रही हैं।
मेरे प्यारे बच्चों, जागो। तुमने इस दुनिया में लकीरें काट-काटकर देश बना दिए हैं। हर देश अनगिनत हथियार इकट्ठे कर रहा है। लेकिन ये हथियार कोविड के सामने लाचार हैं। एक ऐसा शत्रु जो आसानी से, हर सीमा का उल्लंघन कर लेता है। और तो और, शत्रु भेष बदलना भी जानता है। आज शहर सुनसान है, हर घर परेशान है। हमने कौनसा पाप किया था, समझ नहीं आता। एक का दोष नहीं, कहती है माता… तुम सबने मिलकर ऐसी दुनिया सजाई, प्रकृति के नियम की बैंड बजाई। जंगल के पेड़ों को बेरहमी से काटा, चॉपस्टिक्स और कागज के टुकड़ों में बांटा… तेल के लिए धरती का शोषण किया, महंगी गाड़ी लेकर नाम रोशन किया। जंगल में शेर भी पेट पालने के लिए खाता है, आदमी यूं ही आप पे उंगली उठाता है… घर का पौष्टिक भोजन अब भाता नहीं, वैसे भी हमें बनाना आता नहीं। ऑफिस के काम इतने सारे, करने पड़ते हैं पैसों के मारे.. पैसे से देश भी जाना जाता है, समृद्ध या पिछड़े का खिताब पाता है। कितना बनाया, कितना बेचा, पर कोई न पूछता कितना फेंका?
ऐसे कपड़े सिर्फ एक बार पहने, लॉकर में पड़े सोने के गहने। हर चीज पर प्लास्टिक की परतें, छोड़ो न हम नहीं डरते। इस कचरे के पहाड़ों पर कौन चढ़ेगा, इस भयानक यथार्थ से कौन लड़ेगा? चलो क्लाइमेट चेंज पर कॉन्फ्रेंस कर दो, 5 स्टार होटल का बैंक्वेट हॉल भर दो… निन्यानवे के फेर में सब अटके हुए हैं, जिंदगी की राह में भटके हुए हैं। लेकिन अब आया है ऐसा प्रकोप, इग्नोर करने का नहीं है स्कोप… किसी के मामा, किसी के चाचा, किसी की बहन, किसी के भ्राता। कब, कहां, कैसे, समझ नहीं आता… रिश्तेदार इधर-उधर भाग रहे हैं, हर किसी से मदद मांग रहे हैं। सबको सुविधा मिल नहीं पाई, एक और आंसू भरी आकस्मिक जुदाई… इस महामारी से जब हम बाहर निकल जाएंगे, तो क्या अपने अंदर कुछ बदलाव पाएंगे? इसका जवाब आपके पास है, धरती मां की तो यही आस है। कि हम पैसा कम और प्रेम ज्यादा कमाएं, इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाएं… नहीं तो मंगल गृह पर एक दिन जाना पड़ेगा, लैब में उगाया गेहूं खाना पड़ेगा। सिर्फ ख्यालों में बादल बरसेंगे, ऑक्सीजन के लिए हम तरसेंगे…क्षमा करना मां, हमसे भूल हुई। मैं आपके चरणों की धूल हुई…
रश्मि बंसल
(लेखिका और स्पीकर हैं ये उनके निजी विचार हैं)