खाद्य सुरक्षा के दायरे को कम करने की कोशिश जबकि लॉकडाउन में लोगों को इसी ने राहत दी

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सरकार की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? पैसे बचाना या लोगों की जानें? इस तरह से कोई पूछे, तो शायद ही कोई होगा जो चाहेगा कि सरकार अपने खर्च बचाने के लिए लोगों की जानें दांव पर लगा दे। बावजूद इसके सरकारें इस तरह के प्रस्ताव रखती हैं और समाज का एक हिस्सा इसे समझदारी भी मानता है। पिछले कुछ हफ्तों में 4 परस्पर संबंध रखने वाली खबरें आ रही हैं।

पहली, इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में प्रस्ताव रखा गया कि खाद्य सुरक्षा योजना में बंटने वाले सस्ते अनाज के दाम बढ़ा दिए जाएं, फिलहाल मोटा अनाज, गेहूं और चावल क्रमश: एक, दो और तीन रुपए प्रति किलो बिकता है। दूसरी, अखबारों में खबर छपी है कि नीति आयोग की रिपोर्ट में खाद्य सुरक्षा कानून में लाभार्थियों की संख्या घटाने का सुझाव रखा गया है।

खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 75 फीसदी जनसंख्या जन वितरण प्रणाली द्वारा सस्ते अनाज की पात्र है और शहरी क्षेत्रों में आधी आबादी। यानी देश की लगभग दो तिहाई आबादी। इसे घटाकर 40 फीसदी करने की बात चल रही है।

तीसरी, इस वर्ष भारतीय खाद्य निगम द्वारा गेहूं खरीद के मापदंड को और सख्त करने की बात चली है। गेहूं में नमी को 14 से घटाकर 12% किया जाएगा। (पहले ज्यादा नमी होने पर दाम कम मिलता था, अब उसे खरीदा ही नहीं जाएगा) साथ ही, गेहूं में मिलावट 0.75% तक मान्य थी, अब घटाकर 0.50% करने की बात है।

चौथी, भारतीय खाद्य निगम, नेशनल स्मॉल सेविंग्स फंड से पिछले 4 साल से कर्ज ले रहा था, लेकिन इसे बजट में नहीं जोड़ा गया। लोगों द्वारा सवाल भी पूछे गए कि राजकोषीय घाटे को क्यों ‘छुपाया’ जा रहा है? आखिर, इस साल के बजट में वित्त मंत्री ने चारों साल के लोन को इकट्ठा बजट में पेश किया। जो खाद्य सब्सिडी लगभग एक लाख करोड़ रुपए के आसपास हुआ करती थी, अचानक 4 लाख करोड़ रुपए दर्शाई जा रही है। (यानी, लगभग जीडीपी का 2-3 फीसदी)

इन चारों को इकट्ठा पढ़ें, तो बड़ी तस्वीर समझने लगेंगे: आश्चर्य की बात नहीं कि धीरे-धीरे एक आम सहमति बनाने की कोशिश की जा रही है कि देश की खाद्य व्यवस्था बहुत महंगी है और यह खर्च सरकार के लिए अवहनीय है। बेशक देश की खाद्य सुरक्षा व्यवस्था महंगी है, लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जीडीपी के दो-तीन फीसदी खर्च से एक तरफ देश के लगभग 15 फीसदी गेहूं-धान के किसानों को लाभ पहुंचता है।

दूसरी तरफ सस्ते अनाज के रूप में इस खर्च से देश के 66% लोगों को फायदा मिलता है। कुछ साल पहले हमने अनुमान लगाया कि सस्ते अनाज से जो आर्थिक समर्थन लोगों को मिलता है, उससे देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के, और गरीबी रेखा के बीच का 20% अंतर खत्म हो जाता है। क्या हम सच्चे मन से कह सकते हैं कि जिस व्यवस्था से देश के 75% से भी अधिक लोगों को आर्थिक सहायता मिल रही है, वह खर्च (जीडीपी का लगभग दो फीसदी) सरकार के लिए अवहनीय है?

संदर्भ भी अहम है- एक तरफ देश के किसानों का न्यूनतम समर्थन मूल्य और अनाज खरीद बचाने के लिए आंदोलन चल रहा है। दूसरी ओर, यह वही व्यवस्था है, जिसने कोरोना लॉकडाउन में देश की बड़ी आबादी को तकलीफ से राहत पहुंचाई। जन वितरण प्रणाली और नरेगा जैसी कल्याणकारी व्यवस्था ने उस आपत्ति के समय जीवनरेखा का काम किया।

सरकार के पास राजस्व बढ़ाने के कई उपाय हैं, लेकिन उन्हें इस्तेमाल करने से वह शायद इसलिए घबराती है क्योंकि उसमें देश के सक्षम वर्ग को योगदान देना होगा। एक अनुमान के अनुसार देश के केवल एक हजार सबसे अमीर लोगों पर मामूली संपत्ति कर से, जीडीपी का एक फीसदी राजस्व के रूप में सरकार को प्राप्त हो सकता है। उनको नाराज करने के बजाय सरकार खर्च की बचत के नाम पर आर्थिक रूप से कमजोर, जिनकी देश के लोकतंत्र में आवाज कम सुनाई देती है, उनके अधिकारों की कटौती के पक्ष में आमसहमति बनाने की कोशिश करती नजर आ रही है।

रीतिका खेड़ा
(लेखिका अर्थशास्त्री और दिल्ली आईआईटी में पढ़ाती हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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