बीमा उद्योग पर सबकी निगाहें

0
218

बीमा क्षेत्र पर सिर्फ दो लाइन की घोषणा बजट में है। पहली पंक्ति साधारण बीमा निगम को बेचने और जीवन बीमा निगम का आईपीओ लाने यानी उसके शेयर खुले बाजार में उतारने के बारे में है जबकि दूसरी पंक्ति बीमा क्षेत्र में विदेशी मिल्कियत की सीमा 49 से बढ़ाकर 74 फीसदी करने की बात कहती है। अगर इसके साथ एक तीसरी पंक्ति को भी जोड़कर देखें तो सरकार की निवेश नीति का पूरा नजरिया सामने आ जाता है। यह पंक्ति सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को बेचने के बारे में है। बहरहाल, बीमा का मामला अकेले इस धंधे का या इसमें सरकारी प्रबंधन के असफल होने का नहीं है। देश में शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसे बीमा के बारे में कुछ न पता हो या जो अपना या अपने किसी सामान का बीमा न कराना चाहता हो।

बेहतर रेकॉर्ड

यह तथ्य भी सामने है कि बीमा राष्ट्रीयकरण के पहले बीमा लेने वालों की संख्या कम थी पर क्लेम के झगड़े बहुत थे। कंपनियों का पैसे लेकर चंपत हो जाना आम बात थी। आज भी किसी विदेशी कंपनी की तुलना में भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) का क्लेम देने का रेकॉर्ड कहीं बेहतर है। वह महंगे वकील रखकर ग्राहकों के पैसे देने में आनाकानी नहीं करता। दूसरी ओर नई कंपनियों के आने के बाद स्वास्थ्य बीमा से लेकर फसल बीमा जैसे जो भी नए प्रयोग हुए हैं, उनका वास्तविक लाभ गरीबों और किसानों को मिला है या बीमा कंपनियों तथा मंत्रियों और अधिकारियों को, इस बारे में लोगों के बीच बहस चलती रहती है। आज एलआईसी का देश के जीवन बीमा कारोबार में दो तिहाई से ऊपर का हिस्सा है। हर साल यह सरकार को बोनस के रूप में हजारों करोड़ रुपये देता है और वित्तीय बाजार की हर मुश्किल में सरकार तथा देश के काम आता है।

इंश्योरेंस में एफडीआई की सीमा बढ़ने से आपको फायदा हुआ या नुकसान? जानिए क्या कहते हैं जानकार!

जब भी शेयर बाजार विदेशी निवेशकों के हाथ खींचने से औंधे मुंह गिरता है, एलआईसी और यूटीआई जैसी कंपनियां ही उसका सहारा बनती हैं। इनकी खरीद बाजार को संतुलित करती है। ध्यान रहे, 1972 में राष्ट्रीयकरण के पहले देश में 245 निजी बीमा कंपनियां थीं। इनमें से कुछ विदेशी भी थीं। बीमाधारकों के पैसे हड़पने, प्रीमियम का पैसा विदेश भेजने, खुद को दिवालिया घोषित कराके पैसे दबा लेने के इनके किस्से लिखने बैठें तो पूरी किताब कम पड़ जाएगी। राष्ट्रीयकरण के बाद लोगों के भरोसे, पूंजी, क्लेम और सरकार की मदद का कैसा रेकॉर्ड रहा है इस पर भी किताबें लिखी ही गई हैं पर इस तर्क को वे नहीं मानते जिन्हें इस क्षेत्र में सोना ही सोना बिखरा दिखता है।

सचाई यह है कि आज की पूरी बाजार अर्थव्यवस्था बीमा निजीकरण का पक्षधर बनी हुई है। उसका दबाव भीतर ही भीतर अपना काम कर रहा है। असल में बीमा और कुछ हद तक बैंक तथा शेयर बाजार भी अर्थव्यवस्था पर बाजार की पकड़ मजबूत करने का काम करते हैं। यकीन न हो तो अमेरिका और यूरोप में स्वास्थ्य के धंधे और बीमा के बीच का रिश्ता देख लें। वहां हालत यह है कि बिना बीमा के किसी का इलाज संभव ही नहीं रह गया है। और इतने महंगे इलाज के धंधे को बीमा के समर्थन के बगैर चलाया भी नहीं जा सकता। दूसरी तरफ इलाज-जांच-ऑपरेशन का महंगा धंधा न हो तो बीमा का कारोबार ही बैठ जाए। जाहिर है, सब कुछ बीमाधारकों और मरीजों के मत्थे ही चल रहा है। ऐसे मामले रोज सुनने में आते हैं कि बीमा हो तो बेमतलब भी बड़ा इलाज कर दिया जाता है।

खैरियत यही है कि कहीं-कहीं सरकारी इलाज की व्यवस्था भी चल रही है। कोरोना जैसी आपदा में ऐसे अस्पताल ही मुख्य सहारा बने हैं। फिर भी मामला अकेले इलाज के ही धंधे का नहीं है। शिक्षा पर भी अब यही बात लागू होने लगी है। घर, गाड़ी, फर्नीचर, घरेलू सामान और मोटा खर्च कराने वाली हर चीज पर यही व्यवस्था लागू होती दिखती है। अगर बीमा चाहिए तो घर के दरवाजे-चौखट, बिजली की फिटिंग और प्लंबर का काम फलां-फलां कंपनी का ही होना चाहिए। साफ है कि बीमा एक पूरे पैकेज की तरह चलता है और यही कारण है कि बाहरी आर्थिक ताकतें बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने के लिए दबाव बना रही हैं।

सस्‍ते इंश्‍योरेंस का रास्‍ता साफ, आपको बेहतर ऑप्‍शन भी मिलेंगे

बीमा निजीकरण और इसमें विदेशी निवेश की वकालत का काम सबसे पहले रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर आर. एन. मल्होत्रा की अगुआई वाली कमेटी ने किया था। उसने विदेशी पूंजी का लाभ बताने के बजाय राष्ट्रीयकृत कंपनियों के कामकाज में कमियां गिनवाई थीं। पर असल में यह हमारी जरूरत नहीं है। विदेशों का, खासकर विकसित देशों का बीमा बाजार सैचुरेट कर गया है। वहां अब विस्तार की गुंजाइश नहीं है। अमेरिका वगैरह में महंगी इलाज व्यवस्था को लेकर सवाल उठ रहे हैं। वहां के मरीज अब सस्ता इलाज कराने बाहर जाते हैं। बीमा कंपनियों के लिए महंगे और चंट वकील रखकर भी मजबूत ग्राहक आंदोलन से पार पाना संभव नहीं हो पा रहा है। जापान में सबसे ज्यादा बीमा कंपनियां बंद हुई हैं या उनकी जायदाद नीलाम हुई है।

बेचैनी के पीछे

अंतरराष्ट्रीय बाजार में बीमा वाले ग्राहकों के भुगतान का प्रतिशत 40 है जबकि हमारा एलआईसी 97 फीसदी क्लेम पूरे करता है। आज भी बाजार के दो तिहाई से ज्यादा हिस्से पर कब्जे के बावजूद एलआईसी का अपने कुछ सौ ग्राहकों से ही कानूनी विवाद है जबकि एक तिहाई से कम हिस्से वाली निजी कंपनियों (जो प्राय: विदेशी भागीदारी वाली हैं) के खिलाफ लाखों की संख्या में कानूनी मामले दर्ज हुए हैं। इन तथ्यों से बीमा निजीकरण और विदेशी हिस्सेदारी चाहने वालों की बेचैनी तो समझी जा सकती है पर अपनी सरकार और राजनीतिक दलों की बेचैनी को समझना मुश्किल है। बहरहाल, जब सरकार इतनी बेचैन हो, मुख्य विपक्षी दल समर्थन देने को तैयार बैठा हो, अन्य छोटे दल इन बातों को अपनी चिंता लायक ही न मानते हों तो हम आप आखिर कितने दिन खैर मनाएंगे।

अरविंद मोहन
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here