एक लड़की बघारती है दाल … !

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हमारे यहां दाल को बहुत हक़ीर (कम) समझा जाता है। अगर किसी की तौहीन करनी हो तो उसे ‘दाल चपाती खाने वाला’ कहा जाता है। इधर मैं हूं दाल की आशिक़। अक्सर दोपहर को और कभी-कभी रात को कटोरा भरकर दाल पीती हूं और बहुत खु़श रहती हूं। खैर, पर्सनल से हटकर ग्लोबल पर आती हूं। वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के एग्ज़ीक्यूटिव डायरेक्टर डेविड बेस्ले ने आगाह किया है कि दुनिया में 27 करोड़ लोग फाक़ाकशी यानी भुखमरी से दो-चार होने वाले हैं।

यूएन (संयुक्त राष्ट्र) ने हर साल 10 फरवरी को दाल का आलमी दिन पहले ही तय कर रखा है। दाल पर इस क़दर ज़ोर देने की वजह यह है कि यूएन की संस्था फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन और जनरल असेंबली ने मिलकर दाल की अहमियत उजागर करने का बीड़ा उठाया है। इनका कहना है कि यह एक ऐसा अनाज है जो सारी दुनिया में पैदा होता है और इसलिए आसानी से हर व्यक्ति को मुहैया करवाया जा सकता है। यह अलग बात है कि हमारे पाकिस्तान में तो अब कुछ दालें 250 रुपए किलो से भी ऊपर निकल चुकी हैं।

दालों में विटामिन, प्रोटीन, ज़िंक और बहुत-सी एेसी ज़रूरी ख़ूबियां होती हैं जो हमारी सेहत के लिए ज़रूरी हैं, इसलिए यूएन चाहता है कि सारी दुनिया में इसका चलन हो। यूएन ने 2030 को ‘नाे हंगर’ यानी भूख से पूरी तरह निजात का लक्ष्य तय किया है। हिंदुस्तान, पाकिस्तान और अफ्रीक़ा के ज़्यादातर हिस्सों में दाल के ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल पर ज़ोर दिया जा रहा है। यूएन की संस्थाओं का कहना है कि हम भूख से तभी निजात हासिल कर सकते हैं, जब हुकूमतें लोगों को रोज़गार उपलब्ध करवाएं और इस बात को यक़ीनी बनाएं कि लोगों को भरपेट खाना मिल पाए। उनका ज़ोर इस बात पर है कि अगर लोगों को केवल दाल, चावल और रोटी भी दो वक़्त भरपेट मिल पाए तो उनकी जिस्मानी ज़रूरत पूरी हो सकती है और वो फाक़ाज़दा लोगों में नहीं गिने जाएंगे।

हमारे उपमहाद्वीप में दालें जिस तरह पकाई जाती हैं, उनकी तरकीबें भी बयान की जा रही हैं। कहीं तड़के से पंजाबी दाल को पकाने का नुस्ख़ा है तो कहीं राजस्थान की पंचमेल दाल का ज़िक्र है। तड़के में देसी घी का इस्तेमाल किया जाए तो सुब्हान अल्लाह। आप बंगाल की दाल का लुत्फ उठा सकते हैं और लखनऊ की सुल्तानी दाल का तो कहना ही क्या जो दूध, मलाई और दही में पकाई जाती है। जनरल असेंबली और फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन ने दुनिया भर की दालों को पकाने की तरकीबों की भरमार कर दी है।

इस मौक़े पर मुझे इस्माइल मेरठी याद आ रहे हैं। उनकी एक ‘दाल की फरियाद’ नज़्म है। यह मैंने बचपन में पढ़ी थी और इसके कइ बंद तो ज़बानी याद थे। इसमें दाल उस लड़की से फ़रियाद करती है जो उसे पका रही है। इसकी चंद लाइनें

हाज़िर हैं :
एक लड़की बघारती है दाल
दाल करती है अर्ज़ यूं अहवाल
एक दिन था हरी-भरी थी मैं
सारी आफ़ात से बरी थी मैं…।

अगर जनरल असेंबली को इस नज़्म के बारे में पता होता तो वह शायद इसका अनुवाद करके सारी दुनिया में फैला देती।

जाहिदा हिना
(लेखिका पाकिस्तान की जानी-मानी वरिष्ठ पत्रकार, और स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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