गांव की छांव से ही सफल होगा दांव

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जब आजादी नजदीक थी, गांधीजी ने गांवों के विकास को लेकर ‘हरिजन सेवक’ के 2 अगस्त 1942 के अंक में लिखा, ‘ग्राम स्वराज की मेरी कल्पना यह है कि वह अपनी अहम जरूरतों के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा, और फिर भी बहुतेरी जरूरतों के लिए-जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा- वह परस्पर सहयोग से काम लेगा। उसके पास इतनी सुरक्षित जमीन होनी चाहिए, जिसमें ढोर चर सकें और गांव के बड़े व बच्चों के मनबहलाव के साधन और खेलकूद के मैदान वगैरा का बंदोबस्त हो सके। पानी के लिए उसका अपना इंतजाम होगा-वाटर वर्क्स होंगे, जिससे गांव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिला करेगा। कुओं और तालाबों पर गांव का पूरा नियंत्रण रखकर यह काम किया जा सकता है। बुनियादी तालीम के आखिरी दरजे तक शिक्षा सबके लिए लाजिमी होगी। जहां तक हो सकेगा, गांव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जाएंगे। जात-पांत
और क्रमागत अस्पृश्यता जैसे भेद हमारे समाज में पाए जाते हैं, इस ग्राम-समाज में बिल्कुल नहीं रहेंगे।’ गांधीजी के सपनों के देश में ग्रामीण विकास तो खैर नहीं हो पाया, लेकिन यह सच है कि मौजूदा सदी के दो दशकों में गांवों में कुछ बदलाव जरूर आया है।

अब पहले की तरह बजबजाते गांव नहीं हैं, लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि गांव स्वर्ग बन गए हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि भारतीय ग्रामीण विकास का हमारा नजरिया ना तो गांधी के सपनों के मुताबिक है और ना ही मौजूदा परिदृश्य के अनुसार। विकास के तमाम दावों के बावजूद भारतीय समाज अब भी कमोबेश गांव केंद्रित समाज ही है। इसकी तस्दीक आंकड़े भी करते हैं। 1951 की जनगणना के मुताबिक भारत की 82.7 फीसद आबादी गांवों में रहती थी और सिर्फ 17.3 प्रतिशत लोग शहरों में रहते थे। बाद में यह अंतर बढ़ा। 2001 आते-आते ग्रामीण भारत की जनसंया घटकर 72.19 प्रतिशत और शहरी जनसंया करीब पौने दो गुना बढ़कर 27.81 प्रतिशत हो गई। इस दौर में आई उदारीकरण की व्यवस्था के चलते शहरीकरण तेजी से बढ़ा। 2011 की जनगणना के मुताबिक ग्रामीण जनसंख्या का अनुपात घटकर 68.84 प्रतिशत हो गया, जबकि शहरी जनसंया बढ़कर 31.16 प्रतिशत हो गई। आजादी के बाद सामुदायिक विकास कार्यक्रम के नाम पर ग्रामीण विकास की जिमेदारी केंद्र सरकार के पास आ गई, लेकिन 1969 में इसे राज्यों को सौंप दिया गया।

इसके बाद से ग्रामीण विकास में जो तेजी आनी चाहिए थी, वह नहीं आई। केंद्र सरकार के भारीभरकम बजट के बावजूद ग्रामीण विकास में कम से कम सामुदायिक स्तर पर विकास की वैसी चमक नहीं दिख रही है, जैसी कि उम्मीद की जाती है। ग्रामीण विकास के लिए केंद्रीय स्तर पर जो बजट आवंटन है, वह कोई कम नहीं है। ग्रामीण विकास मंत्रालय के तहत प्रमुख कल्याणकारी योजनाओं के बजट में 4.4 प्रतिशत का इजाफा करते हुए मौजूदा वित्त वर्ष के लिए 1.17 लाख करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। जबकि 2018-19 में इसी मद में संशोधित अनुमान 1.12 लाख करोड़ रुपये था। फिर भी सवाल उठता है कि आखिर ग्रामीण क्षेत्रों में थोड़ी-बहुत चमक आई है और पहले की तुलना में गांव कुछ ज्यादा विकसित दिख रहे हैं तो इसकी वजह क्या है? इसे शहरी खर्च की बढ़ती सीमा और उसके जरिए गांवों को मिलते रोजगार एवं कमाई के अवसरों से जोड़कर देखने की जरूरत है। खासकर नई सदी के दो दशकों में ऐसा कुछ ज्यादा ही हुआ है। मतलब शहरों के विकास का कुछ लाभ गांवों तक पहुंच रहा है।

ग्रामीण विकास की एक सीमा यह रही है कि इसे सिर्फ कृषि विकास से जोड़कर देखा जाता रहा है जिसकी जीडीपी में हिस्सेदारी अब 13-14 प्रतिशत ही रह गई है। ग्रामीण विकास को समन्वित अजेंडे के तहत नहीं देखा गया। बहरहाल अब साबित हुआ है कि पहले की तुलना में बढ़ी ग्रामीण खुशहाली की वजह शहरों में बढ़ती खपत दर है। एक अध्ययन के मुताबिक शहरी खर्च में 10 फीसद की वृद्धि ग्रामीण गैर-कृषि रोजगार में 4.8 प्रतिशत की बढ़ोतरी का जरिया बनती है। चूंकि पिछले दो दशकों में तकनीक बढ़ी है और ग्रामीण क्षेत्रों तक तकनीक और बुनियादी संरचना का विस्तार हुआ है जिसकी वजह से आपूर्ति शृंखला भी पिछली सदी के मुकाबले थोड़ी मज़बूत हुई है। करीब ढाई दशक के आंकड़ों के आधार पर हुए एक आर्थिक अध्ययन से पता चला है कि शहरी उपभोग व्यय में 100 रुपये की वृद्धि से ग्रामीण घरेलू आय में 39 रुपये की वृद्धि होती है जिसके चलते ग्रामीण गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार बढ़ता है। यह सच है कि अपने विकास के ढांचे के केंद्र में चूंकि शहरों को तवज्जो मिलती है, लिहाजा नई सदी में गांवों की तुलना में शहरी विकास ज्यादा हुआ है।

हालांकि पिछले एक दशक में शहरी अर्थव्यवस्था में सिर्फ 5.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई, उसकी तुलना में ग्रामीण अर्थव्यवस्था औसतन 7.3 फीसद तक बढ़ी है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के आंकड़े के मुताबिक 2000 में जीडीपी में ग्रामीण अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी 49 प्रतिशत थी, 1993-94 में यह 46 प्रतिशत थी और 1981-82 में 41 प्रतिशत। इस लिहाज से कह सकते हैं कि ग्रामीण विकास का जो पहिया पिछले दो दशकों में तेज चलता दिखा है, उसके पीछे शहरी अर्थव्यवस्था का बड़ा योगदान रहा है। यानी गांधी जी के सपनों के मुताबिक भारतीय गांव नहीं बन सके तो क्या, शहरों के साथ उनका विकास बढ़ा है। सांख्यिकी संगठन के आंकड़ों की ही मानें तो पिछले दशक में देखी गई शहरी घरेलू खपत वृद्धि दर ऐसी ही बनी रही तो ग्रामीण क्षेत्रों में 63 लाख गैर-कृषि रोजगार उत्पन्न हो सकते हैं। जाहिर है, नए दशक में अगर ग्रामीण विकास के मोर्चे पर आगे बढऩा है तो गांवों और शहरों के लिए अलग- अलग नहीं बल्कि एक समन्वित विकास नीति बनानी होगी।

उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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