कश्मीर के सवाल पर सर्वोच्च न्यायालय का जो फैसला आया है, उस पर विपक्षी दल क्यों बहुत खुश हो रहे हैं, यह समझ में नहीं आता। क्या अदालत ने सब गिरफ्तार नेताओं की रिहाई के आदेश दे दिए हैं ? क्या उसने कश्मीर के हर जिले में हर नागरिक को इंटरनेट सेवा की वापसी करवा दी है ? क्या उसने हजारों लोगों के प्रदर्शनों, जुलूसों और सभाओं पर जो रोक लगी हुई है, उसे हटा लिया है ? क्या अदालत ने केंद्र सरकार को कोई आदेश लागू करने को कहा है, जिसे सुनकर कश्मीर की जनता वाह-वाह करने लगे ? मेरे ख्याल में सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा कुछ नहीं कहा है। दूसरे शब्दों में सर्वोच्च न्यायालय में जो याचिकाएं कश्मीरियों की सुविधा के लिए लगाई गई थीं, उनकी ठोस उपलब्धि कुछ भी नहीं हुई। हां, यह जरुर हुआ है कि अदालत ने घुमा-फिराकर सरकार की आलोचना कर दी है और उसे सावधान कर दिया है।
अदालत ने कहा है कि सरकार धारा 144 थोपने और इंटरनेट पर अडंगा लगाने का जो यह काम करती है, यह नागरिकों के मूल अधिकार की अवहेलना है। उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है। सरकार को चाहिए कि वह अपने निर्णयों पर पुनर्विचार करे। दूसरे शब्दों में उसने सरकार को कठघरे में खड़े किए बिना उसे सबक दे दिया है। अब यह सरकार पर निर्भर है कि वह क्या करती है ? सुना है कि वह सारे प्रतिबंध हटाने के पहले फारुक अब्दुल्ला और उनके बेटे से कोई समझौता की बात करना चाहती है। अदालत ने अपने इस फैसले से कश्मीर की जनता और सरकार, दोनों को चुप कर दिया है। न तो उसने किसी के पक्ष में फैसला दिया है, न ही किसी के विरोध में ! उसने बात की सफाई दिखा दी है। सच्चाई तो यह है कि अदालत को पता है कि कश्मीर में जुबान चलाने की आजादी दे दी जाती तो लाखों लोगों की जान जाने की आजादी पैदा हो जाती। अब बर्फ गिर रही है, इसलिए अदालत के फैसले के कारण या उसके बिना भी कश्मीर की जनता पर से प्रतिबंध तो उठेंगे ही।
डा. वेदप्रताप वैदिक
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं )