अब यह व्यंग्य की बात नहीं रही कि भारत में सरकार को छोड़ कर हर चीज का निजीकरण हो जाएगा! केंद्र सरकार के पीयूष गोयल जैसे मंत्री कई बार कह चुके है कि, सरकार का काम कारोबार करना नहीं होता है। सवाल है कि सरकार का काम कारोबार करना नहीं होता है पर सेवा देना तो होता है? भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है और इसके बुनियादी उसूलों के मुताबिक लोगों को सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए जिन चीजों की जरूरत होती है उन्हें मुहैया कराना सरकार की जिम्मेदारी है। पश्चिम के विकसित देशों की तरह भारत के नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा के नंबर नहीं मिले हैं। यह अलग बात है कि उनके मुकाबले कई गुना ज्यादा बार देश के नागरिक किसी न किसी नंबर के लिए लाइन में लग चुके हैं पर कोई भी नंबर इस बात की गारंटी नहीं है कि इससे उनके बच्चों को मुफ्त में बेहतर शिक्षा मिलेगी और उनके परिवार को मुफ्त और अच्छी स्वास्थ्य सेवा मिलेगी!
बहरहाल, ऐसा लग रहा है कि सरकार कारोबार से बाहर निकलने के बहाने सारी सेवाओं से बाहर निकलने जा रही है। लोक कल्याणकारी राज्य के तौर पर देश जो सेवाएं अपने नागरिकों को अब तक देता रहा है यह सरकार उन सेवाओं से बाहर निकल रही है। इसकी शुरुआत विमानन सेवा से हुई है और रेल सेवा से होते हुए सड़क परिवहन तक जाएगी।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता में बने अधिकार प्राप्त मंत्री समूह ने सरकारी विमानन कंपनी एयर इंडिया को बेचने के लिए टेंडर के मसौदा पत्र को मंजूरी दे दी। इसी महीने इसका टेंडर निकल जाएगा। सरकार ने पहले भी इसे बेचना चाहा था पर तब खरीदार नहीं मिले थे। सो, इस बार कई नियमों को बदल दिया गया है। सरकार 76 फीसदी की बजाय सौ फीसदी हिस्सेदारी बेच रही है और साथ ही इसके संचालन के लिए सरकार ने हजारों करोड़ रुपए का जो कर्ज दिया था उसे बिक्री की शर्तों से हटा दिया गया है। यानी जो इसे खरीदेगा उसे वह कर्ज नहीं चुकाना होगा।
अभी यह प्रक्रिया चल ही रही है कि सरकार ने रेलवे के निजीकरण की ओर ठोस कदम बढ़ा दिया है। हालांकि सरकार कह रही है कि वह रेलवे का निजीकरण नहीं कर रही है। पर असल में वह देश की सबसे बड़ी ट्रांसपोर्ट सेवा, जिसे भारत की लाइफ लाइन बोलते हैं और जो हर दिन दो करोड़ से ज्यादा यात्रियों को सेवा दे रही है उसे निजी हाथ में देने जा रही है। सरकार की ओर से ‘यात्री रेलगाड़ियों में निजी भागीदारी’ के लिए एक विचार पत्र जारी किया गया था, जिसे मंजूर कर लिया गया है। इसके मुताबिक सरकार एक सौ यात्रा रूट्स पर डेढ़ सौ निजी गाड़ियों को चलाने की अनुमति देने जा रही है।
इस योजना के पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर दिल्ली से लखनऊ के बीच तेजस ट्रेन चलाई जा रही है। इसमें निजी ऑपरेटर को अपना किराया तय करने, टिकट चेकिंग स्टाफ रखने और खान-पान की व्यवस्था करने का अधिकार है। पर अब जो डेढ़ सौ नई ट्रेने चलेंगी, उनमें ऑपरेटर्स को और भी अधिकार दिए जा रहे हैं। उनको यह तय करने का अधिकार होगा कि वे गाड़ियों को किस स्टेशन पर रोकेंगे और उनको यह भी अधिकार दिया जा रहा है कि वे चाहें तो दूसरे देश से ट्रेन आयात करके ला सकते हैं। उनके लिए बाध्यता नहीं होगी कि वे भारत की ट्रेन फैक्टरियों से ही ट्रेन खरीदें। सोचें, इस तरह रेलवे तो निजी हाथ में जाएगी ही तमाम रेल फैक्टरियों का भविष्य भी खतरे में पड़ेगा।
लोक कल्याणकारी राज्य के नाते यातायात के अलावा जो दूसरी बड़ी सेवा सरकार की ओर से नागरिकों को अर्से से दी जाती है वह स्वास्थ्य की है। सरकार इसके भी निजीकरण की ओर बढ़ रही है। हालांकि सरकारों के निक्कमेपन की वजह से शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों अपने आप निजी हाथों में जाते जा रहे हैं पर केंद्र सरकार सैद्धांतिक रूप से इसे निजी हाथों में देने की योजना पर चलने की तैयारी कर रही है। नीति आयोग ने इसके लिए एक विचार पत्र तैयार किया है। इसमें जिला अस्पतालों को पीपीपी मॉडल पर निजी मेडिकल कॉलेजों के साथ जोड़ने का प्रस्ताव है।
फिलहाल यह प्रस्ताव ऐसे अस्पतालों के लिए है, जिनमें साढ़े सात सौ या उससे ज्यादा बेड हैं। इस प्रस्ताव में कहा गया है कि अस्पताल के आधे बेड मार्केट रेट से जोड़े जाएंगे। यानी आधे बेड बाजार की दर से मरीजों को दिए जाएंगे और उनसे जो कमाई होगी, उनसे बाकी आधे बेड पर मरीजों का इलाज होगा। यह प्रस्ताव इस आधार पर दिया गया है कि सरकार के पास स्वास्थ्य सेवाओं के लिए पैसा नहीं है। सोचें, जो सरकार अपनी जीडीपी का महज एक फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च कर रही है वह कह रही है कि उसके पास पैसे नहीं हैं। कायदे से जीडीपी का कम से कम तीन फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होना चाहिए।
यातायात और स्वास्थ्य से पहले शिक्षा के निजीकरण का रास्ता बन चुका है। दिल्ली का जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी इसकी मिसाल है। पढ़ाई से लेकर छात्रावास और मेस का शुल्क जिस अंदाज में बढ़ाया जा रहा है और दूसरी ओर बिना बने देश के सबसे बड़े उद्योगपति के यूनिवर्सिटी को इंस्टीच्यूट ऑफ एक्सीलेंस का दर्जा दिया जा रहा है उसके बाद कुछ समझने को बाकी नहीं रह जाता है। सरकार मुनाफा कमाने वाली शिपिंग कारपोरेशन को बेचने जा रही है और साथ ही कंटेनर कारपोरेशन को भी बेचेगी। यानी इन दोनों सेवाओं से सरकार बाहर हो जाएगी।
सरकार ने हर साल आठ हजार करोड़ रुपए तक का मुनाफा कमाने वाली भारत पेट्रोलियम को बेचने का फैसला करके ईंधन के क्षेत्र से बाहर निकलने का संकेत भी दे दिया है। सरकारी बैंकों की जैसी स्थिति है, उसे देख कर नहीं लगता है कि सरकार बहुत दिन तक लोगों को बैंकिंग की सेवा दे पाएगी। और अगर सरकार में जैसा चला रहा है उसी तरह चलता रहा तो भारतीय जीवन बीमा निगम का दिवाला निकलने में भी ज्यादा समय नहीं लगेगा। यों भी जीएसपीएस से लेकर आईडीबीआई बैंक तक सरकार ने तमाम डूबती कंपनियों में एलआईसी का पैसा लगवा दिया है।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं