चाणक्य की भूमि बिहार की सीमा से सटे पूर्व उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर जिले में जन्मे देवीप्रसाद त्रिपाठी एक लाजवाब नेता थे। उनके निधन से देश ने एक ऐसा नेता खो दिया है जो न केवल बहुत अध्येता, बुद्धीमना था बल्कि कही कुछ भी कह सकने की हिम्मत रखता था। वे किशारावस्था से ही राजनीति में सक्रिय हो गए थे। दिल्ली का जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय उनकी राजनीति की शुरूआती कर्मभूमि था ।
देवीप्रसाद त्रिपाठी उर्फ डीपीटी 1970 में जेएनयू आकर पढ़ने लगे और वामपंथी स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया में शामिल हो गए। वे अपनी सक्रियता व लोकप्रियता के कारण जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष भी बने। ध्यान रहे कि इस पद पर उनके पहले प्रकाश करात व उनकेबाद में सीताराम येचुरी भी बतौर अध्यक्ष रह। आपातकाल के दौरान वे इंदिरा गांधी के मुखर विरोधी होकर उनके खिलाफ काफी सक्रिय थे। 25 जून 1975 की आपातकाल की घोषणा होने के बाद उनकी तलाश में पुलिस ने जेएनयू पर छापा मारा। मगर वे फरार होकर बाराखंबा रोड पर अपने गांव के एक धोबी के घर में छुप गए।
जब इंदिरा गांधी की बहू मेनका गांधी हड़ताल के दौरान जेएनयू आयी तो उन्होंने उन्हें क्लास में न जाने को कहा। वे इससे काफी नाराज हो गईं व पुलिस डी पी त्रिपाठी की तलाश में जुट गई। मगर वे फरार होकर नवंबर तक पुलिस के हाथ नहीं आए। घोर वामपंथी होने के बावजूद तिहाड़ जेल में बंद भाजपा के अरुण जेटली से उनकी बाद में दोस्ती हो गई। इमरजेंसी के बाद वे जनता पार्टी की सरकार में लेफ्ट से दूर हो चंद्रशेखर और नानाजी देशमुख के भी करीब हुए।
उन्होंने नेपाल में चल रहे राजशाही विरोधी आंदोलन में खास भूमिका निभायी। वहां के नेता फरार होकर भारत में उनके घर में छिपते थे। उन्होंने वहां के माओवादी नेताओं का जमकर साथ दिया। बाद में उनके वसंत कुंज स्थित घर में प्रचंड व बाबूराम भट्टरायी सरीखे माओवादी नेता भी आते रहे । नेपाल में सत्ता में आने के बाद वामपंथियों ने वहां की संसद के पहले सत्र में उनका सम्मान किया। उनकी हाजिर जवाबी व दिमाग का जवाब नहीं था। वे हर दलों से गहरे संबंध रखते थे व विभिन्न दलों के नेताओं से उनके निजी संबंध थे। उन्हें अंदेशा था कि कांग्रेस जेएनयू का चरित्र बदल कर रख देगी। वे
वे इंदिरा गांधी के खिलाफ थे मगर जब राजीव गांधी सत्ता में आए तो वे उनके काफी करीब हो गए। वे उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले ही उनके करीब आ चुके थे। एक घटना का मैं चश्मदीद गवाह हूं। उन दिनों विवादास्पद रोमेश शर्मा राजनीति में काफी सक्रिय थे। उन्होंने मेनका गांधी की पार्टी संजय विचार मंच की सदस्यता ले ली थी व वे उसके महासचिव बना दिए गए थे। एक बार उनके ईस्ट आफ कैलाश स्थित घर पर गोलियां चली। कुछ समय बाद उनके घर में डीपी त्रिपाठी, राजीव गांधी के दूत के रुप में आए और उन्होंने उनसे उनके लैटरपेड के कुछ खाली पन्ने मांगते हुए कहा कि हम लोग इस पर जो कुछ टाइप करके भेजेगे आप उस पर चुपचाप दस्तखत कर दीजिएगा। क्या लिखा जाएगा यह हमारी इच्छा होगी।
वे लेटरहैड लेकर चले गए व कुछ देर बाद एक युवक उनके पास टाइप किए हुए उनका बयान लेकर आया जिसमें उन्होंने मेनका गांधी को जानलेवा हमले का दोषी ठहराया था। उन्होंने मुझसे कहा कि इससे पहले लोग यह लिखते व करते थे जो कि मैं चाहता था मगर आज डीपीटी जो चाहता है वह मुझसे कहलाता रहा है। राजीव गांधी ने डीपीटी को कांग्रेस में जिम्मेवारी दी मगर राज्यसभा सांसद नहीं बनाया। वे डीपी त्रिपाठी की शख्सियत से बहुत प्रभावित थे। इतने ज्यादा कि जब 1985 में मुंबई में कांग्रेस की स्थापना दिवस 28 दिसंबर का शताब्दी समारोह हुआ तो उसमें राजीव गांधी ने अपने भाषण में यह कह कर कांग्रेसियों समेत देश में सबको स्तब्ध कर दिया कि कांग्रेस तो दलालो की पार्टी है।
इन पंक्तियों समेत पूरा भाषण ही डीपी त्रिपाठी ने तैयार किया था। बाद में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी व सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ चले गए। इससे पहले वे चंद्रशेखर के भी करीब रहे। वे पार्टी के महासचिव थे। उनकी आंखों की रोशनी बहुत कमजोर थी लेकिन उनका दिमाग, किताब को बहुत नजदीक से पढना और याददास्त मे पैठांठी लेने में उतना ही ज्यादा रोशन था। अगर उन्हें कभी कुछ पढ़ना होता था तो उसे अपनी आंखों से महज कुछ इंच दूर रखकर पढ़ते थे। किस्मत व जोड़ तोड़ कर पत्रकारिता में बड़े पदों पर पहुंचने वाले संपादक स्तर के लोग उन्हें घेरे रहते थे। वे उनके लिए वट वृक्ष की तरह थे जो कि उनको राजनीतिक ज्ञान देने के साथ-साथ यह बताते थे किस तरह से उनके कार्यक्रमों को नियमित रुप से कवर करना है।
भारत व नेपाल में उनके अखबारों के पाठको की संख्या बहुत थी। संपादक लोग उनके दरबार में बैठे लोगों को देखकर एक चूंप की तरह अभिभूत हुआ करते थे। मगर जनसत्ता में व्यासजी गपशप कॉलम में उन्हे बख्शते नहीं थे। शरद पवार ने उन्हे पहली बार राज्यसभा भेजा और वे संसद में बहुत सक्रिय रहे। राज्यसभा में उन्होंने 98 फीसदी उपस्थिति हासिल की थी। मई 2018 में जब उनका राज्यसभा का कार्यकाल समाप्त हुआ तो उन्होंने अपने विदाई भाषण में कहा कि जिस देश में कामसूत्र नामक पुस्तक लिखी गई व महात्मा गांधी तक सेक्स पर बात करते हो उस देश की संसद सेक्स पर बिल्कुल चर्चा नहीं करती है, जो कि युवा वर्ग के हित में नहीं है। दोस्तों के प्यारे डीपीटी महज 67 साल में लंबी बीमारी के बाद इस दुनिया से चले गए।
विवेक सक्सेना
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं