काले का श्राप व अहंकार को थप्पड़!

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अमरप्रीत सिंह काले को सलाम! कौन है सरदार काले? क्यों उसकी वाह मेरी कलम से? इसलिए कि मैंने काले से कहा था कि यदि तुम जैसे कह रहे हो वैसे रघुवर दास जमशेदपुर से सचमुच हारे तो मैं लिखूंगा कि चींटी ही बहुत है अहंकार तोड़ने के लिए! हां, झारखंड का फैसला कांग्रेस-जेएमएम की जीत नहीं है, बल्कि अहंकार के खिलाफ जनता की, भाजपा के कार्यकर्ताओं की बगावत है। जनता ने भाजपा को महाराष्ट्र में जैसे पटकी दी, हरियाणा में उसे जैसे चौटाला का मोहताज बनाया वैसे ही झारखंड में जनता ने सिरे से हराया तो अहंकार के खिलाफ गुस्से के चलते। जैसे मैं बार-बार लिखता हूं कि मोदी-शाह के हाथों भाजपा, संघ का अधोपतन जब होगा तो इतना बुरा होगा कि हिंदुओं का राजनीतिक दर्शन हमेशा के लिए कलंकित बनेगा और इतिहास अंततः तुगलकी-अहंकारी दास्तां लिखे हुए होगा।

अहंकार का मौजूदा दायरा बहुत व्यापक है। जैसे मोदी-शाह का अहंकार कि मेरे फड़नवीस, मेरे खट्टर, मेरे रघुवर, मेरे योगी, मेरे सोनोवाल तो इनके आगे भाजपा के दूसरे नेताओं, विधायकों-कार्यकर्ताओं को बिल्कुल नही पूछना। संघ के संगठन मंत्री भी फालतू, सब मानो पेड नौकर या रेंगती चींटियां। तभी रघुवर दास ने अमरप्रीत काले को जमशेदपुर पश्चिम के इलाके में चींटी की तरह ट्रीट किया। 26 साल से पार्टी के लिए मरते-खपते काले के खिलाफ यह पूर्वाग्रह कि वह तो अर्जुन मुंडा का आदमी, उसे तो निपटाना है। और परेशान करने, निपटाने में क्या हुआ इसकी दास्तां काले ने शायद मोदी-शाह को छोड़ कर दिल्ली में कई भाजपा नेताओं को बताई तो सबने हाथ खड़े करते हुए कहा कि वे तो मोदी-शाह के लाडले हैं सो, उन्हें समझाना तो दूर बात भी नहीं कर सकते। कैलाश विजयवर्गीय, जेपी नड्डा, राजनाथ सिंह से लेकर संघ के सौदान सिंह सबका सुनना बेमतलब! किसी की मजाल नहीं जो राजा रघुवर को कहे कि भाजपा के जन्मजात कार्यकर्ता के साथ इतना अन्याय क्यों?

सो, सरदार काले ने मन ही मन चोटी खोली और जमेशदपुर पश्चिम में बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ने की तैयारी की। तीन साल से चुपचाप सघन तैयारी। रघुवर दास के भाग्य का फुलस्टॉप, जो सरयू राय का टिकट काटने का रघुवर दास ने दांव चला और काले ने सरयू राय को रघुवर दास की पूर्वी जमशेदपुर सीट से निर्दलीय लड़ने का आग्रह किया, जबकि उनकी सीट पश्चिम की रही है। और सरयू राय ने उसे माना। बस, वहीं रघुवरदास का फुलस्टॉप था।

मेरे तमाम पुराने पाठक जानते हैं कि झारखंड पर अपनी पकड़ पुरानी है। शिबू सोरेन से लेकर रघुवर दास सहित तमाम मुख्यमंत्रियों, प्रदेश नेताओं में अधिकांश नेताओं को मैंने इस कौतुक में बूझा-समझा है कि सर्वाधिक अमीर एक प्रदेश में राजनीति कैसे आदिम-कबीलाई है तो सिस्टम वहां कैसे आदिवासी-ईसाई-मुस्लिम राजनीति के त्रिकोण में काम कर रहा है। मैंने ईटीवी के वक्त में रघुवर दास के विधायक से प्रदेश अध्यक्ष प्रोफाइल को बनवाते देखा है। फिर बतौर मुख्यमंत्री उन्हें अहंकार के रथ पर दौड़ते देखा है। बावजूद इसके मानना था कि इस प्रदेश को एक तुनकमिजाज, अक्खड़ मुख्यमंत्री की भी जरूरत है। इससे प्रदेश का भला होगा। लेकिन अहंकार का मतलब ही क्योंकि सर्वज्ञता, मतलब सब कुछ जानने का घमंड है उससे दिमाग का पूरी तरह प्रदूषित-भ्रष्ट होना है तो रघुवर दास भला कैसे अपवाद होते। हम हिंदू एक व्यक्ति के अहंकार की सर्वज्ञता मे दिवाने बनते रहे हैं जैसे मोदी-शाह के प्रति भी हैं। जबकि इसके चलते हिंदू लगातार पीटते रहे हैं। अपने एक सेनापति अनंगपाल का हाथी पागल हो गया था तो हिंदुओं को समझ ही नहीं आया कि क्या करें।

सोमवार, 23 दिसंबर को झारखंड में वहीं हुआ। मोदी-शाह-रघुवर तीनों जमेशदपुर में मुख्यमंत्री की जीत को ले कर आश्वस्त थे। पर दोपहर में ज्योंहि रघुवर हारने लगे तो एक झटके में पूरे प्रदेश में भाजपा लावारिस हो गई। यदि रघुवर जीतते हुए लगते रहते तो वे 500-1000 वोट के अंतर वाली सीटों पर नजर रख सकते थे लेकिन हार की खबर फैली तो न वे फिर कहीं फोन करने की स्थिति में थे और न रांची में भाजपा मुख्यालय में कोई संभालने वाला था। ध्यान रहे जब अर्जुन मुंडा हारे थे तो रांची में संघ-भाजपा मशीनरी में कई लोग, कई विकल्प थे। खुद रघुवर दास, सौदान सिंह आदि चेहरे व टीमें थीं। लेकिन इस बार नतीजे के दिन एक व्यक्ति, संस्थागत प्रबंधन की एक भी टीम रांची में नहीं थी। सब दिखावे का था। मोदी का नियुक्त सेनापति हारा तो तो पूरी सेना, पार्टी, संगठन भरभरा कर खत्म। रांची का कल का अनुभव प्रमाण है कि मोदी-शाह के बाद या इनके भरभरा कर ढहने के बाद संघ-भाजपा का क्या बनने वाला है!

बहरहाल, ध्यान रहे मैंने झारखंड विधानसभा के इस चुनाव में लिखा नहीं था। अजीत द्विवेदी ने घूमने के बाद तीन दिन (3-4-5 दिसंबर) लिखा। अजीत के पहले दिन के कॉलम की हेडिंग थी ‘पसीने-पसीने भाजपा’। उसमें लब्बोलुआब था- “सबसे ज्यादा भाजपा के पसीने छूट रहे हंै।.. जिस पार्टी ने राज्य की 81 विधानसभा सीटों में से 65 पर जीतने का लक्ष्य रखा है वह पहले चरण की 13 में से आधी सीटों पर जीत को लेकर भी भरोसे में नहीं है। तो सबसे पहला कारण रघुवर दास का पांच साल का कार्यकाल ही है। पांच साल के निष्कंटक राज में उनकी छवि किसी की नहीं सुनने वाले, निरकुंश और कुछ हद तक बिगड़े मिजाज वाले मुख्यमंत्री की बनी। उनके आचरण ने पार्टी के नेताओं के साथ-साथ अधिकारियों और सहयोगियों सबको नाराज किया। यह नाराजगी चुनाव में भाजपा को भारी पड़ रही है। 20 साल पुरानी सहयोगी आजसू ने भाजपा का साथ छोड़ा। आजसू का नाराज होकर अलग होना इस विधानसभा चुनाव का निर्णायक बिंदु लग रहा है।…भाजपा ने पहली बार गैर आदिवासी रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाया। इससे पहले दिन जो आदिवासी नाराज हुए वे अभी तक नाराज हैं। इस बीच सरकार ने जमीन पर उनके मालिकाना हक से जुड़े दो अहम कानूनों को खत्म कर दिया। इससे उनकी नाराजगी और बढ़ी। पांच साल के राज के बाद यह धारणा भी बनी है कि सत्ता का समूचा लाभ सिर्फ वैश्य समाज को मिला। इससे भाजपा का कोर वोट समूह यानी सवर्ण नाराज हुआ। रामटहल चौधरी जैसे नेता की टिकट कटने और आजसू के अलग होने से कुर्मी मतदाता भी भाजपा के बहुत पक्ष में नहीं हैं।…..आमतौर पर बहुकोणीय लड़ाई का फायदा भाजपा को मिलता है पर इस बार झारखंड की बहुकोणीय लड़ाई भी उसको नुकसान पहुंचाती दिख रही है। इसका कारण यह है कि अलग-अलग लड़ रही तमाम पार्टियां भाजपा की ही नई या पुरानी सहयोगी हैं। भाजपा से निकले बाबूलाल मरांडी, भाजपा से अलग हुई आजसू, भाजपा की दो सहयोगी पार्टियां- जनता दल यू और लोजपा, सब इस बार अलग लड़ रहे हैं। ये सब भाजपा की संभावना को नुकसान पहुंचा रहे हैं। तभी दिसंबर के महीने में भी भाजपा के पसीने छूट रहे हैं।”

यह तीन दिसंबर का आकलन था। फिर दो दिनों की हेडिंग ‘जात ही पूछो वोटर की’ और ‘बागियों के वोट से झारखंड का फैसला’ में अजीत द्विवेदी ने लिखा- “भाजपा के पुराने नेता सरयू राय ने मुख्यमंत्री के खिलाफ उनकी पूर्वी जमशेदपुर सीट पर बागी उम्मीदवार बन पूरे प्रदेश का चुनावी माहौल बदला है तो विपक्षी गठबंधन की असली ताकत आदिवासी और अल्पसंख्यक वोट हैं। बहुसंख्यक आदिवासी, ईसाई और मुस्लिम इस गठबंधन को वोट देते लग रहे हैं और राजद को सात सीटें देने का फायदा भी इस गठबंधन को होगा। लालू प्रसाद रांची के ही अस्पताल में हैं और वे भाजपा की यादव राजनीति को फेल करने का तानाबाना बुन रहे हैं। लोकसभा की तरह यादव वोट एकतरफा होकर भाजपा के पाले में नहीं जा रहा है।……..मुख्यमंत्री के अपने जातिगत आग्रहों की वजह से भाजपा ने ऐसे आक्रामक होकर वैश्य राजनीति की है, जिससे दूसरी जातियों में एक तरह की दूरी बढ़ी है। ध्यान रहे भाजपा ने एक दर्जन से ज्यादा विधायकों की टिकट काटी जबकि किसी वैश्य विधायक की टिकट नहीं कटी। झारखंड में जातियों के संघर्ष का भी एक इतिहास रहा है।”

सोचें, इससे ज्यादा बेबाक और सही विश्लेषण आज नतीजों की हकीकत में और क्या है? जो हुआ उसको अजीत द्विवेदी ने बूझा हुआ था। पर मुझे काले सरदार के श्राप का हश्र रघुवर दास पर फलीभूत होते समझ नहीं आया। तभी मैंने शनिवार को रांची पहुंच कर दिन में रघुवर दास से बाकायदा पूछा यह कैसे कि इतने सर्वशक्तिमान रहने के बाद, सारे मीडिया को गुलाम रखने के बाद ज्योंहि चुनाव आया तो आप खुद चुनाव का अकेले ऐसे मुद्दा बने कि एक्जिट पोल ने भी खम ठोक कहा कि भाजपा हार रही है! और तो और जमशेदपुर में भी आपके हारने का परसेप्शन बना हुआ है? कैसी टीम पाली थी और इनके चलते खुद कितने मुगालते में रहे? रघुवर दास का कहना था ये सब झूठ है। उन्होंने जनता का काम किया है, इसलिए उनका काम बोलेगा। वे जीतेंगे। लोकसभा चुनाव के समय में भी ऐसे भाजपा की कम सीटे आने की बात कही जा रही थी। मगर विधानसभा के नतीजो में काम नहीं बोला और अहंकार को थप्पड़ की गूंज बोली। पता नहीं मोदी-शाह को वह सुनाई दी या नहीं! मगर शायद झारखंड की नई सरकार और हेमंत सोरेन तो निश्चित ही रघुवर दास से जान चुके होंगे, आज के नतीजे से सीख चुके होंगे कि लोकतंत्र में सत्ता का नंबर एक दुश्मन है अहंकार!

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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