नागरिकता कानून से भी फायदा नहीं

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झारखंड में भारतीय जनता पार्टी प्रतिष्ठा बचाने में कामयाब रही पर सत्ता से थोड़ी दूर ठहर गई। जो नतीजे आए उससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, मुख्यमंत्री रघुवर दास की प्रतिष्ठा भी बच गई है। पर सबसे अहम बात यह है कि नागरिकता कानून का चुनावी महत्व साबित नहीं हो सका। असल में भारतीय जनता पार्टी ने झारखंड में नागरिकता कानून को ही मुद्दा बनाया था, कम से कम आखिरी तीन चरणों में। इससे पहले लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा ने जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का मुद्दा उठाया था और तीन तलाक कानून पर भी वोट मांगा था। लेकिन ये दोनों मुद्दे चल नहीं पाए थे। इनसे भाजपा को बहुत फायदा नहीं हो पाया था। तभी झारखंड चुनाव से ठीक पहले उठाए गए नागरिकता कानून के मुद्दे की परीक्षा झारखंड के चुनाव में होने वाली थी।

नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने झारखंड के चुनाव में पूरी तरह से अपने को झोंका था और हर सभा में नागरिकता कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का मुद्दा उठाया था। कश्मीर और राम मंदिर का मुद्दा भी दोनों के भाषणों में प्रमुखता से उठाया गया। ध्यान रहे नागरिकता संशोधन बिल लोकसभा में नौ दिसंबर को पास हो गया था और इसे 12 दिसंबर को राज्यसभा से भी मंजूरी मिल गई थी। 12 दिसंबर को जिस दिन राज्यसभा में इस पर बहस हो रही थी और दिन में दो बार राज्यसभा में अमित शाह ने इस पर भाषण दिया, उस दिन झारखंड में तीसरे चरण का मतदान हो रहा था। सो, इस मुद्दे का असर उस दिन से शुरू हो जाना चाहिए था।

आखिरी दो चरण में संथालपरगना और उसके आसपास के ऐसे इलाकों की 31 सीटों पर मतदान होना था, जहां मुस्लिम आबादी बड़ी संख्या में हैं। इन दोनों चरणों के चुनाव से पहले नागरिकता कानून पास हो गया और पूरे देश में इसे लेकर आंदोलन शुरू हो गए थे। आखिरी चरण आते आते देश भर में हिंसक आंदोलन हो रहे थे। आखिरी चरण से पहले प्रचार में प्रधानमंत्री मोदी ने कह दिया था कि नागरिकता कानून का विरोध करने वालों को उनके कपड़ों से पहचाने। इस तरह से संथालपरगना के मुस्लिम बहुल इलाकों में धार्मिक ध्रुवीकरण की जमीन तैयार हो गई थी। पर हैरानी की बात है कि इसके बावजूद भाजपा को फायदा नहीं हुआ। ध्यान रहे संथालपरगना झारखंड मुक्ति मोर्चा का गढ़ रहा है और वहां इस बार भी पार्टी ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया।

बहरहाल, नागरिकता कानून के मुद्दे पर देश भर में चल रहा आंदोलन और राम मंदिर निर्माण की घोषणा जैसे बड़े मुद्दे भी भाजपा को बहुमत तक नहीं पहुंचा सके। गौरतलब है कि भाजपा ने पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी की पहली लहर में 37 सीटें जीती थीं। इस बार उसका प्रदर्शन खराब होकर 30 सीटों पर आ गया है। इस तस्वीर का दूसरा पहलू ज्यादा ध्यान देने लायक है। प्रदेश के मतदाताओं ने भाजपा को हराने के साथ साथ एक दूसरी सरकार के लिए सकारात्मक मतदान भी किया है। चुनाव से पहले गठबंधन करके लड़े कांग्रेस, जेएमएम और राजद को झारखंड के मतदाताओं ने स्पष्ट बहुमत दिया है। इस तरह कहा जा सकता है कि इतने बड़े राष्ट्रीय मुद्दों के बावजूद झारखंड में स्थानीय मुद्दे अहम रहे और लोगों ने भाजपा को हराने के लिए मतदान किया।

विधानसभा चुनाव से छह महीने पहले लोकसभा में भाजपा ने राज्य की 14 में से 12 सीटों पर जीत हासिल की थी। संथालपरगना सीट पर शिबू सोरेन को भाजपा ने हरा दिया था। पर छह महीने बाद विधानसभा के चुनाव में नतीजे बिल्कुल अलग आए तो इसका मतलब है कि राज्य सरकार के प्रति लोगों में नाराजगी थी। केंद्र में जैसा समर्थन नरेंद्र मोदी के प्रति था, वैसा समर्थन मुख्यमंत्री रघुवर दास के लिए नहीं था। यह जनादेश झारखंड की सरकार और रघुवर दास के चेहरे पर आया है।

यह पहला मौका था, जब झारखंड का चुनाव किसी एक चेहरे के ईर्द-गिर्द लड़ा गया था। भाजपा के तमाम पुराने और बड़े नेता हाशिए में थे और अपने चुने हुए या दूसरी पार्टियों से लाए गए नेताओं को लेकर रघुवर दास अपने चेहरे पर चुनाव लड़ रहे थे। विपक्षी पार्टियों ने भी अपने प्रचार का सारा फोकस उनके चेहरे पर रखा। प्रचार के दौरान विपक्ष ने कहीं भी नरेंद्र मोदी या अमित शाह को मुद्दा नहीं बनाया और न उनके उठाए मुद्दों का जवाब दिया। मोदी और शाह मंदिर बनाने या नागरिकता कानून लागू करने या राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बनाने का मुद्दा उठाते रहे पर जेएमएम, कांग्रेस और राजद का फोकस स्थानीय मुद्दों पर मुख्यमंत्री रघुवर दास के चेहरे पर रहा। भाजपा ने पिछला चुनाव सामूहिक नेतृत्व पर लड़ा था। मतदाताओं को अंदाजा नहीं था कि चुनाव के बाद भाजपा गैर आदिवासी मुख्यमंत्री भी बना सकती है। सो, हर वर्ग का साथ भाजपा को मिला था। इस बार भाजपा गैर आदिवासी चेहरे पर चुनाव लड़ी थी। सो, यह चुनाव भाजपा के इस दांव की भी परीक्षा थी। यह दांव भी कारगर नहीं हो पाया।

अब भाजपा को गंभीरता के साथ नागरिकता कानून के राजनीतिक पहलुओं पर विचार करना होगा। भाजपा इसे चुनाव जीतने का रामबाण फार्मूला मान रही थी पर पहली ही परीक्षा में यह फार्मूला फेल हो गया। इसका असर दिल्ली के चुनाव पर भी होगा। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा दिल्ली के चुनाव में नागरिकता, कश्मीर और राम मंदिर के मुद्दे पर ही लड़ती है या नया मुद्दा तलाशती है। कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि भाजपा के पास ले-देकर एक ही पूंजी है और वह है नरेंद्र मोदी का चेहरा। उसके अलावा हर फार्मूले में भाजपा पिट रही है। इस बारे में उसे गंभीरता से विचार करना होगा।

सुशांत कुमार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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