आइडिया ऑफ सेकुलरिज्म के लिए चुनौती!

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इस पर कोई बहस नहीं है कि भारत के संविधान का बुनियादी विचार कानून का राज कायम करना और उस राज में सबको बराबरी का अधिकार देना है। इसके लिए संविधान में मौलिक अधिकारों की परिकल्पना की गई है और कानून के समक्ष सबकी समानता का प्रावधान किया गया है। इसलिए अगर 42वें संशोधन के जरिए सेकुलर शब्द संविधान की प्रस्तावना में नहीं शामिल किया गया होता तब भी भारत एक सेकुलर देश ही था और ऐसा संविधान की भावना व राजकाज की परंपरा के साझा संयोग से हुआ था।

आजादी के बाद जो लोग सत्ता में आए उन्होंने धर्म, जाति, नस्ल, रंग, लिंग किसी भी भेदभाव के बगैर शासन चलाना सुनिश्चित किया था। समानता का यह अधिकार अपने आप में देश के संविधान और समूचे ढांचे को सेकुलर बनाने वाला था। दूसरे, आजादी के बाद जो पीढ़ी सत्ता संभाल रही थी वह संविधान सभा की बहसों में शामिल रही थी। उन्होंने इस बात पर बहस होते देखी थी कि भारत को सेकुलर घोषित किया जाए या नहीं। कागजी तौर पर संविधान में भारत को सेकुलर नहीं लिखा गया। क्यों नहीं लिखा गया इसके ऐतिहासिक कारण थे। बगल में बन रहे एक इस्लामिक राष्ट्र के बरक्स अगर भारत को सेकुलर राष्ट्र लिखा जाता तो संभव था कि उस समय बहुसंख्यक समाज भड़क जाता और अल्पसंख्यकों पर ज्यादा जुल्म होते, जो कि उस समय सीमा के दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों पर हो रहे थे। तभी बहुत सुविचारित तरीके से भारतीय संविधान में सेकुलर शब्द नहीं लिखा गया। हालांकि संविधान बनाने वालों ने इसे सेकुलर माना और उसकी प्रैक्टिस के प्रावधान भी किए।

सो, अपने बुनियादी विचारों में भारत का संविधान सेकुलर है। सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की बेंच ने केशवानंद भारती मामले में संविधान के बुनियादी ढांचे का जो सिद्धांत प्रतिपादित किया उसमें सेकुलरिज्म का विचार स्वाभाविक रूप से शामिल है। यानी कोई भी सरकार अगर किसी भी कानून के जरिए देश के सेकुलर ताने बाने को बदलने का प्रयास करती है तो वह कानून न्यायिक समीक्षा का विषय होगा और सर्वोच्च अदालत उसे बदल सकती है। तभी नागरिकता संशोधन बिल पर अब लोगों की आखिरी उम्मीद न्यायपालिका से है। हालांकि यह भी संयोग है कि वहां भी ज्यादातर बड़े मामलों में फैसले उसी लाइन पर हो रहे हैं, जो सत्तारूढ़ दल और लोकप्रिय भावना के अनुकूल हों।

बहरहाल, अदालती और कानूनी प्रक्रिया से इतर अगर नागरिकता संशोधन बिल पर विचार करें तो एक बहुत साफ राजनीतिक मकसद दिखाई देता है। वह मकसद ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने का है। एक राष्ट्र के अंदर दो राष्ट्र बनाने का है। उसके लिए तमाम किस्म के झूठ, फरेब आदि का सहारा लिया जा रहा है। बिल पर चर्चा के दौरान सदन में कहा गया कि कांग्रेस ने अगर धर्म के आधार पर देश का विभाजन नहीं स्वीकार किया होता तो यह बिल लाने की जरूरत नहीं थी। हकीकत यह है कि कांग्रेस ने कभी भी धर्म के आधार पर देश का विभाजन मंजूर नहीं किया। धर्म के आधार पर पाकिस्तान बना था पर भारत विभाजन के बाद भी वैसा ही रहा, जैसा विभाजन से पहले था। महात्मा गांधी से लेकर नेहरू, पटेल, आंबेडकर, मौलाना आजाद सबने कहा भी और उसी हिसाब से आचरण भी किया कि भारत सर्वधर्म समभाव वाला एक धर्मनिरपेक्ष देश होगा और अपने देश के अल्पसंख्यकों की रक्षा करेगा।

आजादी के बाद समय के साथ धर्मनिरपेक्षता के विचार को मजबूत किया गया। पर इसके बरक्स दूसरी ओर इस विचार को अल्पसंख्यकवाद या मुस्लिम तुष्टिकरण का नाम देकर बदनाम करने की साजिश भी चलती रही। बहुसंख्यक हिंदू आबादी के मन में यह बात बैठाई जाती रही कि कांग्रेस और उसके जैसी राजनीति करने वाली दूसरी पार्टियां आइडिया ऑफ सेकुलरिज्म के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण कर रही हैं। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, भारतीय जनसंघ और बाद में भारती जनता पार्टी ने बहुत सुनियोजित तरीके से यह भी प्रचार किया कि सेकुलरिज्म का विचार भारत की बुनियादी धारणा से नहीं जुड़ा है। उनका कहना था कि जिस तरह से वामपंथ आयातित है उसी तरह से सेकुलरिज्म भी आयातित विचार है।

जमीनी स्तर पर अलग अलग तरीके से इस प्रचार की समय समय पर परीक्षा भी ली जाती रही। मंदिर आंदोलन भी उसी प्रयोग का हिस्सा था। हालांकि तब देश इस विचार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। अब ऐसा लग रहा है कि देश इस प्रचार को स्वीकार कर रहा है कि सेकुलरिज्म का विचार हिंदुत्व का विरोधी विचार है। दोनों एक दूसरे के असंगत हैं। सेकुलरिज्म का मतलब मुस्लिम तुष्टिकरण है। यह पिछले पांच साल की राजनीति का कुल जमा हासिल है। नब्बे साल से ज्यादा समय तक संघ ने वैचारिक स्तर पर जो काम किया, उसकी राजनीतिक फसल काटने का समय अब आया दिख रहा है। पूरे देश में एक विचार के तौर पर हिंदुत्व का प्रचार किसी भी समय के मुकाबले ज्यादा सघन हो गया है और उसके साथ ही सेकुलरिज्म का विचार निशाने पर आया हुआ है।

ध्यान रहे ये दोनों विचार एक साथ नहीं रह सकते हैं। धार्मिक ध्रुवीकऱण और सेकुलरिज्म साथ नहीं चल सकते। इसलिए कांग्रेस ने सेकुलरिज्म या भाजपा के शब्दों में कहें कि मुस्लिम तुष्टिकरण की जो राजनीति की उसकी काउंटर पॉलिटिक्स यह थी कि मुस्लिम विरोध की राजनीति की जाए। पाकिस्तान का विरोध, कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाना, तीन तलाक को अपराध बनाने का कानून बनाना और अब नागरिकता कानून में संशोधन करना इसी राजनीति के अलग अलग पहलू हैं।

सुशांत कुमार
लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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