नागकिता बिल पर सियासत

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लोकसभा में तो तय था कि नागरिकता संशोधन विधेयक पारित हो जाएगा। पर सियासी तकाजा कहें, हाल ही में एनडीए से छिटककर महाराष्ट्र में एनसीपी- कांग्रेस के साथ सरकार बनाने वाली शिवसेना ने भी किन्तु-परन्तु के साथ मोदी सरकार के प्रस्ताव का समर्थन कर दिया। इससे निश्चित रूप से कांग्रेस को असहजता महसूस हुई है। उद्धव ठाकरे तक इस ऐतराज को पहुंचा दिया गया है, हालांकि ठाकरे ने साफ कर दिया है कि उनकी पार्टी की विचारधारा हिन्दुत्व है और वह उसी पर आगे भी चलेगी। इस लिहाज से महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ जाने के बाद कांग्रेस के हाथ राज्य की सत्ता में सिवाय हिस्सेदारी के कुछ नहीं आने वाला, यह सोमवार को लोक सभा में शिवसेना के रूख से साफ हो गया है। रही बात शिवसेना की तो उसकी बुनियाद में हिन्दुत्व है। इससे परे जाने का सीधा मतलब अपने वोटरों को भाजपा के हवाले कर देने जैसा है। इसी दुरभि संधि को रेखांकित करते हुए सोमवार देर रात बिल पर अपने जवाब में कांग्रेस के लिए कहा भी, कि यह ऐसी सेकुलर पार्टी है, जो केरल में मुस्लिम लीग तो महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ सत्ता साझा करती है।

हालांकि यह विरोधाभास कश्मीर में भाजपा संग भी सार्वजनिक हुआ था जब पीडीपी संग सरकार बनी थी। बहरहाल, इस हमाम में सबकी स्थिति कमोबेश एक जैसी है। जहां तक मौजूदा बिल है, उसकी बुनियाद में पड़ोस के तीन राज्यों पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक प्रताडऩा के शिकार अल्पसंगयकों को भारत की नागरिकता देने की व्यवस्था की गई है, जिसमें हिंदू, सिख, बौद्ध, ईसाई और पारसी समुदाय के लोग शामिल हैं। विपक्ष को संशोधन विधेयक में धार्मिक अल्पसंगयकों की श्रेणी को लेकर आपत्ति है और इसी आधार पर भाजपा पर वोट बैंक की राजनीति का आरोप लगाया जा रहा है। विपक्ष समझता है, बिल में उन सभी का समावेश होना चाहिए जो प्रताडऩा के कारण भारत में नागरिकाता चाहते हैं। वजह है कि पाकिस्तान को, अहमदिया, बोहरा और शिया समुदाय के लोग भी जुल्म का शिकार हो रहे हैं लेकिन नये प्रारूप में उनके लिए गुंजाइश नहीं है। यह अनुच्छेद 14-15 का सीधा उल्लंघन है, जो समानता का अधिकार देता है। पर मौजूदा बिल जिस पृष्ठभूमि में लाया गया है, उसके सियासी नफा-नुकसान की बहस को एक किनारे रखते हुए सोचें तो इसकी वजह 1951 में नेहरू-लियाकत समझौता है, जिसके तहत अपने-अपने मुल्कों में अल्पसंगयकों के अधिकार को संरक्षण प्रदान किया जाना था।

भारत में तो इसका अनुपालन हुआ लेकिन पाकिस्तान में कालांतर में लगातार उल्लंघन होता चला गया। आंकड़े खुद हकीकत बयान कर देते हैं। 1942 को विभाजन के बाद भारत में 9.5 फीसदी अल्पसंख्यक थे, वर्तमान में 14.5 फीसदी है जबकि इसी कालखण्ड में पाकिस्तान में 21 फीसदी थे, वर्तमान में 4.5 फीसदी रह गये हैं। जब-तब उत्पीडऩ और धर्मांतरण की सूचनाएं सुर्खियां बनती रहती हैं। इस आलोक में बिल का प्रारूप वक्त की मांग है। इन पड़ोसी मुल्कों से सताये जाने के कारण भारत में शरण लिए लाखों-कराड़ों लोगों को नागरिकता पाने का इंतजार है तो उसमें अब और देरी नहीं होनी चाहिए। बिल को लेकर पूर्वोत्त में जो भंरातियां थीं उसका भी गृहमंत्री ने अपने जवाब में निराकरण किया है। अब असल परीक्षा राज्यसभा में होती है, जहां, विपक्ष की मजबूत स्थिति है। हालांकि पिछले सत्र में मोदी सरकार ने 370 और तीन तलाक के मसले पर जिस तहर का फ्लोर मैनेजमेंट किया था, उस जैसी ही एक बार फिर दरकार होगी। वैसे शिवसेना के रूख में क ई तब्दीली ना होने से भाजपा ने राहत की सांस ली है। कर्नाटक उपचुनाव में बढ़ा हुआ है, इसका भी असर सोमवार को बहस में दिखा। आगे राज्यसभा में भी दिखेगा यही उम्मीद है।

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