महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे 24 अक्टूबर को घोषित होने के करीब एक महीने बाद प्रदेश को उसका मुखिया मिल गया है। यह मुखिया वही है जिसे प्रदेश की जनता ने चुना था, बस फर्क इतना है कि जनता ने भाजपा और शिवसेना गठबंधन को स्पष्ट बहुमत दिया था लेकिन सत्ता के लोभ में शिवसेना ने भाजपा का साथ छोड़ दिया और नई राह तलाशने की कोशिशों में जुट गई और यहां भाजपा ने चुप्पी साध ली। महीने भर चले सियासी ड्रामे में रोजाना शिवसेना की तरफ से एकाद बयान भाजपा के खिलाफ आ जाते थे लेकिन भाजपा ने अपनी मर्यादा नहीं तोड़ी और बस यही कहा कि प्रदेश को एक स्थिर सरकार सिर्फ हम ही दे सकते हैं। बस उन्हें जरूरत थी 40 विधायकों की। एक तरफ शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का भरोसा जीतने में जुटी थी और बाला साहेब को दिया हुआ वादा पूरा करने में। शिवसेना चाहती थी कि एक शिवसैनिक ही प्रदेश का मुखिया बने लेकिन एनसीपी और कांग्रेस ने कहा कि हम उद्धव ठाकरे के नाम पर अपनी सहमति जता सकते हैं किसी और के नाम पर नहीं। ऐसे में बैठकों का दौर शुरु हुआ और तय भी हो गया कि एनसीपी और कांग्रेस सरकार बनाने में शिवसेना की मदद क रेगी।
शरद पवार की रग-रग से वाकिफ कांग्रेस का मानना था कि एनसीपी उसे एक बार फिर से धोखा दे सकती है क्योंकि राष्ट्रपति शासन लागू होने से पहले जब समर्थन वाली चिट्ठी राज्यपाल को सौंपनी थी तो एनसीपी ने थोड़ा और समय मांगा। एनसीपी नेताओं की मानें तो पवार ने ऐसा इसलिए किया कि प्रदेश को एक स्थिर सरकार दे सकें। कांग्रेस ने भी भरोसा कर लिया और शिवसेना के साथ कॉमन मिनिमम प्रोग्राम पर चर्चा शुरू हो गई। कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के तहत तीनों दलों के बीच एक फॉर्मूला भी तय हो गया और आपसी सहमति भी बन गई कि उद्धव ठाकरे ही मुख्यमंत्री बनेंगे। लेकिन भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा उलटफेर हो गया और देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली और उपमुख्यमंत्री शरद पवार के भतीजे अजीत पवार बन गए। जिसके बाद कांग्रेस ने इसे जनादेश के साथ विश्वासघात बताया। जनादेश के साथ विश्वासघात यह कुछ जम नहीं रहा क्योंकि जनता ने तो भाजपा-शिवसेना गठबंधन और एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन को वोट दिए थे। ऐसे में अगर उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन जाते तो क्या यह जनादेश का अपमान नहीं होता।
इतना ही नहीं कांग्रेस के खिलाफ चुनावों में बड़ी-बड़ी बातें करने वाली क्या शिवसेना पूर्णता अपने जनता को दिए अपने वादे भूल पाती ? और क्या कांग्रेस वीर सावरकर को भारत रत्न दिए जाने की बात स्वीकार लेती ? यह सभी सवाल बेहद अहम हैं लेकिन अभी जो सवाल सबसे ज्यादा जरूरी है वह ये हैं कि क्या एनसीपी टूट गई ? जैसे ही महाराष्ट्र में अजीत पवार के उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेने की खबर आई वैसे ही कांग्रेस नेता थोड़ा भ्रमित हो गए। अभिषेक मनु सिंघवी ने ट्विटर पर लिखा कि महाराष्ट्र के बारे में पढक़र हैरान हूं। पहले लगा कि यह फर्जी खबर है। निजी तौर पर बोल रहा हूं कि तीनों पार्टियों की बातचीत तीन दिन से ज्यादा नहीं चलनी चाहिए थी। यह बहुत लंबी चली। मौका दिया गया तो फायदा उठाने वालों ने इसे तुरंत लपक लिया। लेकिन सिंघवी साहब यह भूल गए कि पार्टी के वरिष्ठ नेता ही शिवसेना के साथ सरकार बनाने के पक्ष में नहीं थे। वो तो विधायकों द्वारा सरकार बनाए जाने की बात कही जाने के बाद आलानेताओं ने इस ओर विचार किया। इस बीच सिंघवी ने अजीत पवार तो तंज कस दिया और कहा कि पवार जी तुस्सी ग्रेट हो।
अगर यही सही है तो आश्चर्यजनक है। अभी यकीन नहीं है। तो क्या सिंघवी साहब भूल गए कि अजीत पवार भी उसी परिवार का खून हैं जिसे आप लोगों ने पार्टी से निष्कासित किया था। अजीत पवार उपमुख्यमंत्री बन गए लेकिन क्या इस बारे में शरद पवार को कोई जानकारी नहीं थी। यह कहना थोड़ा अजीब लग रहा है। क्योंकि शीतकालीन सत्र की शुरुआत के पहले दिन ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बातों-बातों में एनसीपी की तारीफ कर दी और फिर बाद में शरद पवार ने संसद भवन में ही प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात की थी। हालांकि इस मुलाकात को किसानों की समस्याओं पर आधारित बताई गई थी। फिर क्या था कांग्रेस ने भी सवाल खड़ा कर दिया कि अगर किसानों के ही मुद्दे पर था तो हमें भी साथ ले चलते। वैसे राजनीति और क्रिकेट में कुछ भी मुमकिन है। ऐसा नितिन गडकरी ने कहा था और गडक री के पवार परिवार के साथ रिश्ते कै से हैं यह किसी से भी नहीं छिपा है। हालांकि पवार साहब ने उस पूरे गेम से खुद को अलग करते हुए बयान भी दे दिया और कहा कि महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए भाजपा को समर्थन देने का अजित पवार का फैसला उनका व्यक्तिगत निर्णय है। यह एनसीपी का फैसला नहीं है। हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम इस फैसले का समर्थन नहीं करते।
अनुराग गुप्ता
(लेखक स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)