धानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्यूरोक्रेसी को जरूरत से ज्यादा सिर पर बिठाया है। वह मंत्रियों से ज्यादा ज्वाईंट सेक्रेटरी को महत्व देते हैं। उन की यह कार्यशैली गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए भी दिखाई दी थी जिसे उन्होंने दिल्ली में भी जारी रखा। वह भाजपा कार्यकर्ताओं को ज्यादा महत्व नही देते , जिस कारण भाजपा कार्यकर्ता उनसे खुश नहीं रहते , बल्कि अपनी लोकप्रियता के कारण विचारधारा से प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की मजबूरी बन गए हैं। उन्होंने अपने भक्तों की व्यक्तिगत फ़ौज खडी कर ली है , जो भाजपा के कार्यकर्ता नहीं हैं। गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राजनीतिक सरकारी पदों पर भी रिटायर नौकरशाहों को बिठा दिया था। वही सिलसिला उन्होंने दिल्ली में भी जारी रखा।
पांच साल पहले प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने नौकरशाहों की मीटिंग बुला कर कह दिया था कि वे बिना किसी राजनीतिक दबाव में काम करें उन्हें किसी तरह की समस्या हो तो सीधे उन से सम्पर्क करे। साफ़ इशारा था कि मंत्रियों की परवाह नहीं करें। खबरें तो यहाँ तक छपी थी कि उन्होंने अपना निजी फोन नम्बर नौकरशाहों को दे दिया था , वह न भी दिया हो , तो भी पिछले पांच साल दो-चार मंत्रालयों को छोड़ कर बाकी सभी मंत्रालय पीएमओ में बैठे नौकरशाह चला रहे थे।
मंत्री लाचार थे , उन्हें प्रधानमंत्री से मिलने का महीनों वक्त नहीं मिलता था जबकि किसी भी मंत्रालय का कोई भी अफसर एक दिन के भीतर प्रधानमंत्री से मुलाक़ात कर सकता था। यह बात कुछ मंत्रियों ने खुद इस कालम लेखक को कई बार कही थी।
जो हो, देश के एक बड़े अंग्रेजी अखबार ने खबर दी है कि प्रधानमंत्री ने नौकरशाहों की एक मीटिंग में कहा कि उन्होंने उनके पांच साल बर्बाद कर दिए , लेकिन अब अगले पांच साल बर्बाद नहीं होने देंगे। क्या यह प्रधानमंत्री का अपने कार्यालय पर अविश्वास है? क्योंकि आम धारणा तो यह है कि पिछले पांच साल पीएमओ ने राज किया। यह धारणा मंत्रियों की बातों से ही बनी है, क्योंकि लाचार मंत्री अपने नजदीकी लोगों के साथ अपना दुख साझा करते रहे हैं।
अंग्रेजों की दी हुई नौकरशाह प्रणाली अभी भी जस की तस कायम है। जबकि इसमें शुरू से ही लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के हिसाब से बदलाव किए जाने चाहिए थे। ब्यूरोक्रेसी को लोकतंत्र के अनुकूल बनाया जाना चाहिए था बल्कि हुआ इस का उलटा है , पिछले 70 साल में ब्यूरोक्रेसी ज्यादा मजबूत और मनमानी हो गई| इसकी एक वजह अपन अनुभवहीन राजनेताओं को भी मानते हैं , जिन्हें पढ़े लिखे ब्यूरोक्रेट्स अपनी उँगलियों पर नचाते हैं और उन्हें पैसा कमाने के रास्ते बताते हैं| राजनेताओं को अपने भ्रष्टाचार में साझीदार बना कर नौकरशाहों ने लोकतंत्र को भ्रष्ट बनाया है।
सच यह है कि ब्यूरोक्रेसी और न्यायपालिका लोकतंत्र को सही ढंग से लागू करने में सब से बड़े बाधक बन गए हैं। चुनी हुई सरकारें नौकरशाहों के सामने लाचार हो जाती हैं| ताज़ा उदाहरण जर्मनी की चांसलर एंजिला मार्केल के बयान का है , वह हाल ही में भारत आई तो उन्होंने शिकायत की कि भारत की ब्यूरोक्रेसी जर्मनी के साथ हुए समझौतों को लागू करने में बाधक बनी हुई ह। यह हाल सिर्फ जर्मनी के साथ समझौतों का ही नहीं है , करीब करीब सभी देशों की ऐसी ही शिकायत है। यही कारण है कि मोदी ने अपने प्रयासों से जितने विदेशी निवेश का वायदा करवाया, पिछले पांच सालों में उस का 20 प्रतिशत भी निवेश नहीं हुआ। जिस ब्यूरोक्रेसी पर मोदी की आपार कृपा बनी हुई थी, आज अगर उन की आँखें खुली हैं, उन्हें महसूस हुआ है कि ब्यूरोक्रेसी ने उन की सरकार की योजनाओं को ठीक से लागू नहीं किया तो सवाल खड़ा होता है कि क्या वह अब लोकतंत्र को ब्यूरोक्रेसी से मुक्त करवा पाएंगे।
अजय सेतिया
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं