यह अटूट सत्य है कि इस धरती पर जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु स्वाभाविक है। बाल्यावस्था, युवा अवस्था तथा वृद्धावस्था जीवन ऊर्जा का अवसान है। क्या मृत्यु दुख देती है या नहीं देती? यह प्रश्न अनुत्तरित है। मृत्यु का अनुभव अज्ञात है लेकिन वृद्धावस्था के कष्ट सर्वविदित हैं। भगवान बुद्ध की कथा में भी वृद्ध दर्शन की अनुभूति है। यह अवस्था जीवन का एक ऐसा पड़ाव है जिसमें मनुष्य अधिकांश इन्द्रियां काम नहीं करतीं। बुढ़ापे के दुखों मनुष्य अंगीकार नहीं कर सकता। क्योंकि वह अपनी युवास्था में इसे अपनी सुविधा व दुविधा अनुसार मोड़ लेता है। बुजूर्ग हमारे समाज का अनुभव समृद्ध भाग हैं। उनके जीवन को कष्टरहित बनाना समाज का कर्तव्य है। बुजूर्गों की सेवा उनकी संतानों का प्रथम कर्तव्य दायित्व है। यह हमारे समाज, धर्म और सरकार की भी जिम्मेदारी है। भारतीय समाज संयुक्त परिवारों में विकसित हुआ है। ऐसे परिवारों के सुख-दुख साझे रहे हैं। बुजूर्ग अपने परिवारों में खुश रहते हैं।
परंतु आज सामुहिक परिवारों की परंपरा टूट गई है। सब अलग थलग रहना चाहते हैं। इसी कारण से हमारे समाज में बुजूर्ग अकेले जीवन यावन को विवश है। जिस प्रकार एक बच्चे को माता-पिता की आवश्यकता होती है उसी प्रकार वृद्धावस्था एक ऐसा पढ़ाव है जब उन्हें भी अपनी संतानों की आवश्यकता होती है। आज कहने को तो हम आधुनिक हो गये हैं परंतु ऐसी आधुनिकता का फायदा जब माता-पिता थोड़े से प्यार के लिए भटक रहे हैं। यह समाज के लिए यह स्थिति भयावह है। नई पीढ़ी की संवेदनाएं मर चुकी हैं। तभी तो हर शहर में वृद्धावस्था आश्रम खोल दिये गये हैं। हम सब यह भलीभांति जानते हैं कि जिस अवस्था से आज हमारे बुजूर्ग गुजर रहे हैं हमें भी उसी रास्ते से गुजरना होगा और वह रास्ता कहीं अधिक कष्टकारी हो सकता है। जीवन समय बंधन में है। सभी प्राणी काल के भीतर है। मनुष्य भी। जन्म और शैशव ऊषाकाल है। बचपन संभावनाओं का बीज है। संभावना का बीज फूटता है। जीवन-मरण का पहिया सभी के लिए बराबर घूमता है चाहे वह अमीर हो गरीब। वहां कोई भेदभाव नहीं। प्राचीन कवि बता गए हैं दृशीर्यते इति शरीरं। जो शीर्ण होता रहता है, वह शरीर है।
शरीर सतत् क्षरणशील है। 50-60 साल के आसपास आ जाती है वृद्धावस्था। मनुष्य शरीर के भाव हर 10 वर्ष बाद परिवर्तित होते रहते हैं। बाल्यास्था के पहले 10 वर्ष में मनमौजी होता है। अगले 10 साल में बढ़ोतरी होती है और अगले 10 साल में रंग रूप अवतरण होता है। प्रकृति अपना काम करते ही हैं। वृद्धावस्था प्रकृति की नियति है। बुढ़ापा अभिशाप नहीं है। वृद्धों के पास संसार के जीवन्त अनुभवों का कोष होता है। वृद्ध होना सौभाग्य है। शारीरिक शक्ति का विचार अर्थहीन है। अनुभव का कोष महत्वपूर्ण है। वृद्ध के पास दिशा होती है, युवक के पास गति और ऊर्जा। वृद्धों के दिशा दर्शन में ही युवकों की गति उपयोगी है। माता-पिता भी ऐसे ही मार्गदर्शक संरक्षक होते हैं। हम सब उनका विस्तार हैं। वे न होते तो हम न होते। विराट पृथ्वी और अनंत आकाश माता-पिता हैं। माता-पिता हमारा भविष्य संवारते हैं ये दो दुनिया के सबसे बड़े भगवान हैं। वे हमारी शक्ति के केन्द्र है। पिता अपने पुत्र की देखभाल करता है। माता-पिता का संरक्षण सबसे बड़ा होता है। पिता यथार्थ हैं। प्रत्यक्ष संरक्षक व सुखदाता है। सुख कई तरह का होता है। प्रिय का मिलन सुख है। प्रकृति की अनुकूलता सुख है।
इच्छा का पूरा होना भी सुख है। माता पिता बचपन में पोषण देते हैं, पढ़ाते हैं सिखाते हैं। वे स्वयं की चिन्ता नहीं करते अपना भविष्य नहीं देखते। हम सबके सुखद भविष्य का तानाबाना बुनते हैं। हम तरुण होते हैं, पिता वृद्ध होते हैं। हम तरुणाई से और परिपक्व होते हैं, पिता और वृद्ध होते हैं। जब हम तेज रफ्तार जीवन की गतिशीलता में होते हैं, तब माता-पिता उठते ही गिर पड़ते हैं। वे बचपन में हमको गिरने से बचाते थे। बचपन में माता-पिता हमको उछालते थे। हम उनकी गोद में गिरते थे। खिलखिलाते हंसते थे। प्रसन्न मन। क्या उन्हें हम उनकी वृद्धावस्था में अपनी गोद में बैठा सकते हैं?
भारत आगे बढ़ रहा है। विकासशीलता से विकसित राष्ट्र होने जा रहा है। अधिकांश वृद्ध माता-पिता जीवन की सांझ में निराश हैं। पुत्र अपने काम में व्यस्त हैं। वे अकेले हैं। कुछेक को दवा भोजन मिलता है लेकिन प्रेम नहीं। वे युवा पुत्रों से वार्ता चाहते हैं। उन्हें वृद्धावस्था में संरक्षण की जरूरत है। लेकिन कमाऊ पुत्र डाट रहे हैं, वृद्ध व्यथित हैं। सरकारें वृद्धाश्रम बना रही हैं। यह राष्ट्रव्यापी समस्या है। इसका उपचार प्राचीन संस्कृति और वैदिक सभ्यता है। भारत के अपने इतिहास में माता-पिता के आदर व श्रद्धा वाला संस्कारी समाज था। वैसा ही संस्कारी भविष्योन्मुखी समाज बनाने के लिए माता-पिता का संरक्षण पाना और वृद्धावस्था में उन्हें संरक्षण देना कोई बड़ा काम नहीं है। यह सांस्कृतिक प्रश्न है। सामाजिक प्रश्न है और पारिवारिक आनंद की प्राप्ति का मार्ग भी है।
– सुदेश वर्मा
यह लेखक का निजी विचार हैं