देश में आर्थिक सुस्ती को मोदी सरकार भले ही खुले तौर पर ना स्वीकार करे लेकिन रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया समेत दुनिया की तमाम संस्थाओं से एक ही संकेत आम है कि भारत की जीडीपी अनुमान से कम रहने वाली है। इसी सिलसिले में विश्व बैंक ने भी आर्थिक सुस्ती को देखते हुए विकास दर सात फीसदी से कम रहने वाली बताई है। पहले इसी एजेंसी का अनुमान 7.2 फीसदी था। इससे पहले आईएमएफ ने भी 6 फीसदी से कम जीडीपी का आंकलन किया था। हालांकि भारत को दुनिया में सर्वाधिक तेज गति से उभरने वाली व्यवस्थाओं में से एक बताते हुए तारीफ भी की थी। इससे पहले फिच ने भी विकास दर घटने का संकेत दिया था। हालांकि यह परिदृश्य वैश्विक है, चौतरफा मंदी का माहौल है। अमेरिका-चीन जैसी समृद्ध अर्थव्यवस्थाएं मंदी का शिकार हैं। इसके अलावा इन दोनों देशों के बीच वर्चस्व की लड़ाई ट्रेड वार के रूप में सामने आने से भी हालात बिगड़े हैं। इसके अलावा खाड़ी देशों से भी खबर अच्छी नहीं है। पिछले महीने सऊदी अरब की तेल कंपनी पर हमला हुआ था जिसको लेकर ईरान पर शक जताया गया था।
वैसे ईरान ने अपना हाथ होने से इनकार किया था, फिर भी उस घटना के बाद से दोनों देशों के बीच संघर्ष जैसे हालात बन गये। अब यह इत्तेफाक है या फि र प्रतिक्रिया स्वरूप कार्रवाई ईरान पर भी हमला हो गया। इससे पेट्रोल की कीमतें उछलनी स्वाभाविक थीं। इनकी कीमतों के बढऩे का मतलब महंगाई का बढऩा और यह स्थिति जब सुस्ती के दौर में हो तो उसका क तना प्रतिकूल असर पड़ता है, अंदाजा लगाया जा सकता है। एक तो अमेरिकी प्रतिबंध के चलते भारत के लिए पेट्रोल उत्पाद ईरान की जगह अरब देश से खरीदना लागत के हिसाब से महंगा पड़ रहा है। बदहाल आर्थिक परिस्थितियों के पीछे यह भी एक वजह बना हुआ है। इसके अलावा दीवालिया होते बैंकों की एक —एक करके कहानी सामने आने से वित्तीय प्रबंधन का नया रास्ता क्या हो, नहीं सूझ रहा। विपक्ष सवाल उठा रहा है, उठाएगा ही। लेकिन जो सरकार में हैं उनसे तो समाधान की उम्मीद होती है। दिक्कत यह है कि सरकार के मंत्री नहीं मानते कि देश में मंदी है। अजीबोगरीब तर्कों के सहारे मौजूदा आर्थिक तस्वीर से ध्यान भटकाने की पुरजोर कोशिश हो रही है।
इन सबके बीच एक तथ्य थोड़ी उम्मीद जगाता है कि वैश्विक संस्थाओं की नजर में भारत का इकोफ्रेंडली विकास हो रहा है, जो स्थायित्व के लिए जरूरी होता है। लेकिन बढ़ती बेरोजगारी और बंद होते कल-कारखाने चिंता पैदा करते हैं। यह ठीक है कि आर्थिक सुधारों की तरफ बढ़ा जाना चाहिए। पर इसी के साथ यह भी देखने की आवश्यकता है कि पुनर्संरचना के चक्कर में कहीं हालात अराजक ना हो जाएं। यह भी एक तथ्य है कि मौजूदा स्थिति स्थायी नहीं है। हालात सुधरेंगे। पर इसके बीच का समय बहुत पीड़ादायक है, इसका दर्द पीएमसी बैंक के ग्राहकों से समझा जा सक ता है। माना कि जो हालात सामने हैं वे कुछेक वर्षों की देन नहीं हैं लेकिन इसे ठीक करने की जिह्यमेदारी तो मौजूदा नेतृत्व की ही है। इसलिए आवश्यक है कि जो हालात हैं उसकी स्वीकारोक्ति के साथ आगे बढ़ा जाये। संतुलित विकास के लिए जरूरी है अर्थव्यवस्था के सभी स्टेक होल्डरों को बराबर से मौका मिले।