बड़े मुद्दों की परीक्षा वाला चुनाव

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महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव का पूरा परिदृश्य बदल गया है। इन दोनों राज्यों में पांच साल से भाजपा की सरकार है और कायदे से सरकार के कामकाज पर ही चुनाव लड़ा जाना चाहिए था। पर ऐसा होता नहीं लग रहा है। वैसे भी पिछले पांच साल से कोई भी चुनाव स्थानीय मुद्दों पर नहीं लड़ा जा रहा है। भाजपा के दोनों शीर्ष नेताओं ने हर चुनाव को राष्ट्रीय बना दिया है। यहां तक कि स्थानीय निकायों के चुनाव में भी भाजपा के नेता नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नाम पर वोट मांगते हैं और हैरानी की बात है कि कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां मोदी और शाह की आलोचना करके वोट मांगती हैं।

इसलिए कोई भी चुनाव स्थानीय नहीं रह जाता है। इसी तरह जब चुनाव मोदी और शाह के नाम पर लड़ा जाता है तो चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार की योग्यता भी गौण हो जाती है। यह भारतीय लोकंतत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है पर यह पिछले पांच साल की हकीकत है और इसके लिए जितनी जिम्मेदार भाजपा है उतनी ही कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां भी हैं। बहरहाल, महाराष्ट्र और हरियाणा का विधानसभा चुनाव भी इसका अपवाद नहीं होने वाला है।

दोनों राज्यों में भले भाजपा और उसके नेता प्रचार कर रहे हैं कि सरकार ने पांच साल में कमाल का काम किया है और कामकाज का इतिहास बना दिया है। भले भाजपा ने दोनों मुख्यमंत्रियों देवेंद्र फड़नवीस और मनोहर लाल खट्टर को फिर से मुख्यमंत्री पद का दावेदार बना दिया है पर असलियत यह है कि चुनाव नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चेहरे पर लड़ा जाएगा। पांच महीने पहले इन दोनों के चेहरे पर लोकसभा का चुनाव लड़ा गया था, जिसमें भाजपा को 2014 के मुकाबले ज्यादा वोट और ज्यादा सीटें मिलीं। तभी महाराष्ट्र और हरियाणा में भी दावा किया जा रहा है कि पिछली बार से ज्यादा सीटें मिलेंगी। यह लोकसभा चुनाव के बाद हो रहा पहला चुनाव है इसलिए नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल के पहले चार-पांच महीने के कामकाज पर एक तरह से जनमत संग्रह भी है।

इन चार-पांच महीनों में केंद्र सरकार ने जो फैसले किए हैं उन पर इन राज्यों का चुनाव होगा। इस वजह से भी यह चुनाव स्थानीय मुद्दों और स्थानीय उम्मीदवारों वाला नहीं रह जाएगा। ध्यान रहे सरकार ने इस दौरान जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 के ज्यादातर प्रावधानों को हटा दिया है। साथ ही राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया है। सरकार ने कश्मीर के लोगों के लिए अलग नागरिकता का प्रावधान करने वाले अनुच्छेद 35ए को भी हटा दिया है। इसके बाद पाकिस्तान के साथ ऐसा टकराव बढ़ा है कि लोगों के दिल दिमाग में देशभक्ति का तूफान मचल रहा है। ऐसे तूफान के बीच हो रहे चुनाव में भाजपा क्या मुद्दा उठाएगी यह समझना मुश्किल नहीं है। कश्मीर का मुद्दा प्रमुखता से उठेगा और यह परीक्षा होगी कि इसमें वोट दिलाने की कितनी ताकत है।

इसी तरह केंद्र सरकार ने अपने पहले चार-पांच महीने के कार्यकाल में तीन तलाक को अपराध बनाने वाला कानून पास कराया है और असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के बहाने पूरे देश में एनआरसी की बहस छेड़ी है। ये दोनों मुद्दे हिंदू-मुस्लिम की सदियों पुरानी ग्रंथि से जुड़े हैं, जिस पर राजनीति करने का भाजपा को पुराना अनुभव है। सो, इस बार चुनाव में हिंदू मुस्लिम का नैरेटिव बनाने के लिए अलग से श्मशान क्रबिस्तान या अली और बजरंग बली किस्म का नारा देने की जरूरत नहीं होगी। इस बार तीन तलाक और एनआरसी के मुद्दे की परीक्षा होगी।

एक तरफ भाजपा के पास राज्य सरकारों के कामकाज के अलावा अनुच्छेद 370, 35ए, तीन तलाक, एनआरसी का मुद्दा है तो दूसरी ओर कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के पास आर्थिकी की मुद्दा है। देश की अर्थव्यवस्था का भट्ठा बैठा हुआ है। फैक्टरियां बंद हो रही हैं। कामकाज ठप्प पड़ा है। लोगों के रोजगार जा रहे हैं। न घर बिक रहे हैं और न गाड़ियां बिक रही हैं। अब तो साबुन, तेल, बिस्किट जैसे उत्पादों का बिकना भी कम हो गया है। कंपनियां दिवालिया हो रही हैं और बैंकों का एनपीए बढ़ता जा रहा है। सरकार भले नहीं मान रही है कि मंदी है पर उसकी ओर से इसे रोकने के जितने उपाय किए जा रहे हैं उससे लोगों को समझ में आ रहा है कि सरकार भी परेशान है।

सो, एक तरफ भावनात्मक मुद्दों की परीक्षा है तो दूसरी ओर वास्तविक और आम आदमी के जीवन से जुड़े असली मुद्दों की परीक्षा है। इस परीक्षा के दो पहलू हैं। पहला तो यह कि कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां आम लोगों को इस आर्थिक संकट की विकटता समझा पाने में कामयाब होती है या नहीं। यह विपक्ष पर है कि वह आर्थिक संकट को कितने बड़े चुनावी मुद्दे में तब्दील करती है। भाजपा के उठाए भावनात्मक मुद्दों के बरक्स विपक्ष असली मुद्दों को लोगों के दिल दिमाग में बैठा पाता है या नहीं, यह कांग्रेस, एनसीपी जैसी पार्टियों के प्रचार पर निर्भर करता है।

इसका दूसरा पहलू आम आदमी की समझदारी का है। आर्थिकी का संकट सबसे ज्यादा आम लोगों के सामने है। इसलिए यह परीक्षा होनी है कि वे अपने हितों को समझते हैं या नहीं? यह देखना दिलचस्प होगा कि लोग कश्मीर के भावनात्मक मुद्दे की बाढ़ में बहते हैं या अपने हितों की चिंता में भाजपा की सरकारों को जिम्मेदार ठहराते हैं? वैसे चुनाव तो अब पूरी तरह से पैसे और प्रबंधन का मामला बन गया है, जिसमें भाजपा के सामने कांग्रेस या कोई भी विपक्षी पार्टी कहीं नहीं टिकती है पर वोट तो अंततः आम लोगों को डालना होता है। अगर वे अपने हित की चिंता करते हैं तो चुनाव दिलचस्प हो जाएगा।

सुशांत कुमार
लेखक स्तंभकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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