मातृ-भूमि

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बाबू साहब, “तेरे पिताजी क्या करते हैं? मोहन, पिताजी नहीं है।”

बाबू साहब “अच्छा! कितने अखबार हैं तेरे पास?”

मोहन, ” मेरे पार बीस अखबार हैं।”

बाबू साहब “एक अखबार कितने का है।”

मोहन, “एक रुपये का।”

साहब, “ला सारे अखबार दे मुझे।”

मोहन, “आप तो बस एक ले लिजिये, बाकी मैं बेच लूंगा”

साहब ने थोड़ा सख़्ती से कहा “जब मैं ही सारे खरीदना चाहता हूं तो देता क्यों नहीं?”

मोहन ने झिझकते हुए कहा, “आप मुझ पर दया कर रहे हैं। सभी अख़बारों में एक ही खबर तो है। सारे लेकर क्या करेंगे?”

बाबू साहब समझ गये थे कि बड़ा भावुक बालक है। अतः समझाते हुए बोले, “नहीं बेटे हम दया नहीं कर रहे हैं। हम तो अपने मोहल्ले में सबके घरों में बंटवाएंगे। देखता नहीं, कितनी अच्छी खबरे हैं….चौहारे पे खून…..प्रधानमंत्री रंगून….और क्या-क्या ….तू बोल न……।”

कहते कहते बाबू साहब हंस पड़े और साथ में मोहन भी खिलखिला उठा। उसने सारे अखबार बाबू साहब को दे दिए और बाबू साहब ने सौ रुपये का नोट निकाल कर दिया। मोहन बोला “मुझ पर टूटे पैसे नहीं होंगे साहब।”
बाबू साहब “तो कोई बात नहीं, सारे रख लो। फिर ले जाएंगे।”

मोहन, “फिर कब साहब?”

बाबू , “अरे फिर भी तो हम अखबार खरीदेंगे।”

मोहन, “नहीं साहब, नहीं। हम ऐसा काम नहीं करते। कल हम कहां होंगे आप कहां। मैं आपको कहां ढूंढता फिरुंगा?”

बाबू, “नहीं भी मिले तो कोई बात नहीं। तुम समझ लेना कि हमने तुम्हे पुरस्कार दिया था।”

मोहन का चेहरा लाल हो गया। वह शर्म और क्रोध से दहक उठा। तिलमिला कर होला, “आप मुझे भीख दे रहे हैं? मैं भीख नहीं लेता। मैं अपनी मेहनत की कमाई चाहता हूं। आप मुझे केवल बीस रुपये दे दीजिये। वह भी बड़ा उपकार होगा। मैं अपनी मां का सपूत हूं, उन्हें धोखा नहीं दे सकता। उन पर कलंक नहीं लगने दूंगा।”

साहब समझ गए कि बड़ा स्वाभिमानी बालक है। अतः उन्होंने बीस रुपये निकाल कर मोहन को दे दिये। मोहन ने बाबू साहब के चरण स्पर्श किए और हंसी-खुशी लौट लिया।

यह बात दिल्ली के एक चौराहे की है। मोहन इस शहर में रहता है। वह एक पन्द्रह-सोलह साल का लड़का है। उसकी केवल मां है, पिता नहीं। पिता थे भी कि नहीं, वह नहीं जानता। उसने जब से होश सम्भाला, बस मां को ही देखा। पिता की या तो मोहन के होश सम्भालने से पहेल ही मृत्यु हो गई थी या फिर वे घर छोड़कर चले गए थे। मोहन जब भी अपनी मां पूछता है कि उसके पिता कौन हैं तो वे अत्यन्त गम्भीर हो जाती, माथे पर बल पड़ जाते और कहतीं, “याद रख, तेरे पिता ईश्वर हैं तथा तेरी मां…ये भारत मां हैं।” मोहन पूछता…और तुम…तो वे कहती, मैंने मुझे जन्म दिया है। मैं तो हूं ही पर असली मां तो ये भारत मां है। इसी की मिट्टी पर तेरा जन्म हुआ, यही पैदा हो रहे अन्न से तू पलता है। यही की हवा, पानी पर तू जीवित है। इसका उपकार कही न भूलना। इसकी रक्षा व मान-सम्मान के लिए अपनी जान भी देने से मत चूकना।

साभार
उन्नति के पथ पर (कहानी संग्रह)

लेखक
डॉ. अतुल कृष्ण
(अभी जारी है… आगे कल पढ़े)

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