बदलाव की चुनौतियां

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मंगलवार को लोक सभा से जम्मू-कश्मीर राज्य पुनर्गठन बिल पारित होने के बाद सांविधानिक स्तर पर 72 साल का इतिहास अब अतीत हो गया है। एक तरह से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की आम जनता के लिए विकास की नई यात्रा शुरू हुई है। सोमवार को गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में अनुच्छेद 370 के साथ जम्मू-कश्मीर के विशेष राज्य का दर्जा खात्मे का बिल पेश किया था, जो दो-तिहाई समर्थन के साथ पारित हो गया। आधुनिक भारत में 5-6 अगस्त अब ऐतिहासिक बदलाव का गवाह है। यकीनन ऐसे कदम के लिए नेतृत्व के स्तर पर जिस दृढ़ता की जरूरत होती है, उसे मोदी सरकार ने संभव कर दिखाया है। इसके बाद अब चुनौतियां और बढ़ गई हैं। पहले पाक प्रायोजित सीमा पार आतंक वाद और घाटी के भीतर स्लीपर सेल व अलगाववाद को बढ़ावा देने वाली ताकतों की तरफ से देश के सामने बड़ी चुनौती थी।

सुरक्षा बलों और सेना के जवानों के लिए दिन-रात सतर्कता बरतने के साथ मुस्तैद रहने की चुनौती अलग से थी। इसके बाद भी आतंकियों की मंशा कभी-कभार कामयाब हो जाती थी। नये घटनाक्रम में सेना और सुरक्षाबलों की बंपर तैनाती है ताकि नापाक इरादे कामयाब न हो सकें। नई व्यवस्था के मुताबिक जम्मू-कश्मीर अब केन्द्र शासित प्रदेश हो गया है, इसी तरह लद्दाख भी केन्द्र शासित प्रदेश बन गया है। अब सबसे बड़ी और पहली चुनौती जम्मू-कश्मीर की मौजूदा स्थिति को सामान्य करने की है। बीते 72 सालों से कश्मीरियों को जिस कथित आजादी और धारा 370 को सांस्कृतिक पहचान बताते हुए अलगाववादी एक मानसिक ता तैयार करते रहे हैं, उसे दूर करना बड़ी चुनौती होगी। जिस तरह अप्रत्याशित ढंग से मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर की पूरी वैधानिक स्थिति बदल दी उससे स्वाभाविक है।

जो लोग उस स्थिति में लंबे समय से रहे हैं, बहुत आसान नहीं है नई परिस्थिति को अंगीकार करना, खासकर उस राजनीतिक बिरादरी के लिए जिसका फलना- फूलना पुराने तौर-तरीके से हुआ। अब्दुल्ला और मुफ्ती घाटी की बड़ी रसूखदार सियासी शख्सियतें हैं, उन्हें नये राजनीतिक परिवेश में ढालने के लिए कुछ वक्त भी देना होगा। इसलिए कि बदलाव भले ही अप्रत्याशित ढंग से हुआ हो, लेकिन उनकी कोशिश अभी विशेष दर्जा को वापस पाने की होगी। पहली कोशिश कानून की दृष्टि से होगी। फारूख अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म किये जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही है। पाकिस्तान ने भी मामले को यूएनओ ले जाने और जरूरत पडऩे पर इंटरनेशलन कोर्ट आफजस्टिस (आसीजे) तक दस्तक देने की बात कही है। मोदी सरकार के इस कदम से पाकिस्तान का सारा मंसूबा धरा का धरा रह गया है।

इधर हफ्तों से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के जरिये कश्मीर मसले को अन्तर्राष्ट्रीय रंग देने की कोशिश चल रही थी। अमेरिका ने भी मध्यस्थता का राग छेड़ दिया था क्योंकि उसे अफगानिस्तान से अपनी फौज वापस लाने के लिए पाकिस्तान की मदद चाहिए। उसका अपना हित है। इधर भारत ने बार-बार अपना पक्ष रखते हुए स्पष्ट किया है कि उसे कश्मीर पर किसी तीसरे देश की जरूरत नहीं है। अब कश्मीर पर नई परिस्थिति में भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय बातचीत होगी तो वो पीओके पर होगी। गृहमंत्री ने संसद में स्पष्ट किया है कि पुनर्गठन बिल में गुलाम कश्मीर की मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियां, अलगाववादी नेताओं का समूह और पाक प्रायोजित आतंक वाद नई व्यवस्था के सामने बड़ी चुनौतियां होंगी। बंदूक के साये से धीरे-धीरे पूरे रीजन को मुक्त कर सामान्य स्थिति बहाल करनी होगी। विकास के लिए तो यह पहली शर्त है।

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