तुरंत फायदे की दौड़ से बड़ा नुकसान

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देश में एचटीबीटी यानी हर्बिसाइड-टॉलरेंट बीजों के विरोध में धरना-प्रदर्शन आम खबर रही है, लेकिन हाल में एक किसान संगठन ने महाराष्ट्र के अकोला जिले में प्रतिबंधित एचटीबीटी कपास की बोआई के पक्ष में शक्ति प्रदर्शन कि या है। प्रदेश में इस साल क पास की कुल बोआई क्षेत्र के लगभग 25 फीसदी भूभाग पर प्रतिबंधित एचटीबीटी कॉटन की बोआई की जा चुकी है। इन बीजों के इस्तेमाल का समर्थन कर रहे शेतकरी संघटना की दलील है कि एचटीबीटी कपास में कीटनाशकों का छिडक़ाव कम करना पड़ता है जिससे लागत घटती है। प्रति हेक्टेयर उत्पादक ता भी इसमें ज्यादा रहती है। संगठन के मुताबिक यही कारण है कि प्रतिबंध के बावजूद किसान इस बीज के इस्तेमाल पर अड़े हुए हैं। ध्यान रहे, इन प्रतिबंधित बीजों के इस्तेमाल पर सख्ती से काबू पाने का निर्देश केंद्र सरकार द्वारा सभी राज्यों को जारी किया जा चुका है।

इसके बावजूद इन बीजों की खरीद-बिक्री हो रही है तो सवाल उठता है कि क्या सरकारी तंत्र इनकी तस्करी पर काबू पाने में असमर्थ है? महाराष्ट्र की यह घटना सामने आने के बाद किसानों को समझाने के प्रयास तेज हो गए हैं लेकिन जरूरत इन कंपनियों के स्थानीय एजेंटों पर नकेल कसने की है। बीजों की ये किस्में पर्यावरण, भूमि की गुणवत्ता और नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए भी घातक हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार जेनेटिक मोडीफिकेशन से पौधों में कीटनाशक के गुण आ जाते हैं। इससे फसलों का कीड़ों से बचाव तो होता है, लेकिन इस कीटनाशक क्षमता से फसलों की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। ये बीज गैर जीएम फसलों को संक्रमित करने की क्षमता भी रखते हैं। इन तथ्यों से अनभिज्ञ किसान सिर्फ उत्पादन में वृद्धि को लेकर उत्साहित हो जाते हैं। इसके समर्थक पक्ष का मानना है कि जीएम बीजों के इस्तेमाल से देश में खाद्यान्न की कमी दूर हो जाएगी।

यह दलील भारतीय परिप्रेक्ष्य में मिथक मात्र है क्योंकि 50 के दशक के शुरू में देश 5.2 करोड़ टन अनाज का उत्पादन कर पाता था जो आज जीएम तकनीक के बगैर भी 28.4 करोड़ टन तक पहुंच चुका है। इन बीजों में न तो फसल की उत्पादकता बढ़ाने की स्वाभाविक क्षमता होती है, न ही सूखे का सामना करने, उर्वरक से उत्पन्न प्रदूषण पर काबू पाने या मिट्टी की गुणवत्ता की रक्षा करने की। मौजूदा विवाद एचटीबीटी यानी हर्बिसाइड-टॉलरेंट क पास बीजों को लेकर है जो अस्वीकृत जीनों से निर्मित होने के कारण भारत में प्रतिबंधित हैं। देश की जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति ने इसकी खेती की मंजूरी नहीं दी है। यह बीटी कॉटन की ही एक नई किस्म है जिसमें राउंड-अप रेडी तथा राउंड-अप फ्लेक्स नामक जीन शामिल हैं। यह अमेरिकी बहुराष्ट्रीय बीज कंपनी मॉनसेंटो द्वारा विकसित की गई है। अपने देश में सिर्फ बीटी कॉटन उत्पादन की वैधता है।

हर्बिसाइड-टॉलरेंट बीजों में शाक नाशकों की प्रतिरोधक क्षमता होती है। कीटनाशकों और शाक नाशकों के छिडक़ाव का असर कपास की फसल पर भी पड़ता है, लेकिन एचटीबीटी बीजों में मौजूद शाक नाशक -प्रतिरोध क्षमता के कारण इन छिडक़ावों का असर सिर्फ खर-पतवार पर पड़ता है। किसानों द्वारा इन अवैध बीजों का उपयोग सरकार के संज्ञान में है। एक सरकारी पैनल के अनुसार वर्ष 2017-18 के दौरान प्रमुख उत्पादक राज्यों के तकरीबन 15 फीसदी भूभागों पर इन बीजों की बोआई की गई थी। तब केंद्रीय कृषि मंत्री द्वारा लोक सभा को सूचित किया गया था कि प्रमुख कपास उत्पादक राज्यो को एचटीबीटी उगाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के निर्देश जारी किए जा चुके है। इन निर्देशों के बावजूद खतरनाक बीजों का उपयोग चिंताजनक है। 2012 में संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट में भी इन्हें हानिकारक बताया जा चुका है।

सुप्रीम कोर्ट की टेक्निकल एक्सपर्ट कमेटी की रिपोर्ट में भी जीएमफ सलों के दुष्प्रभावों को गैर जिम्मेदार ढंग से मापे जाने की बात कही जा चुकी है। अमेरिका, चीन तथा इंग्लैड जैसे विकसित देश इन बीजों के कुप्रभावों से बचने में असमर्थ रहे। अमेरिका में हुए एक सर्वे के अनुसार वहां गेहूं के जैविक बीज से पैदा होने वाली फसलों में आधी से ज्यादा जीएम बीजों से संक्रमित हो चुकी हैं। भारत जैसे देश के लिए यह एक सबक हो सकता है। जीएम फसलों का विरोध करने वाले संगठनों का आरोप रहा है कि इन्हें विकसित करने वाली बायोटेक कंपनियां कई देशों के कानूनों और न्यायिक प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप करने पर आमादा हैं। ग्लाइफॉसेट को, जो मॉनसेंटों के ‘राउंडअप’ नामक खरपतवार नाशक का एक अहम हिस्सा है, कैंसरकारक तथा डीएनए को क्षति पहुंचाने वाला पाया गया है। एक ताजा शोध के अनुसार ग्लाइफॉसेट के कारण कैंसर होने का खतरा 41 प्रतिशत तक बढ़ जाता है।

ऐसे में सरकार के साथ-साथ किसानों की भी जिम्मेदारी है कि वे इन बीजों तथा रासायनिक पदार्थों से होने वाले खतरों को समझें। पंजाब के कपास किसान बीटी कॉटन का दर्द झेल चुके हैं। पिछले कुछ सालों के आंकड़ों पर गौर करें तो महाराष्ट्र्, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पंजाब में सबसे ज्यादा बीटी कॉटन के खेतिहरों द्वारा ही आत्महत्या के मामले प्रकाश में आए हैं। आज भारत गेहूं, चावल, चीनी और कपास का एक बड़ा निर्यातक है। ऐसा तब है जब हमने किसी खास जीएम तकनीक को नहीं अपनाया। इससे स्पष्ट है कि भारतीय किसानों ने अपनी मेहनत के बूते न सिर्फ देश को खाद्यान संपन्न बल्कि निर्यातक भी बना दिया। ऐसे में उन तकनीकों और बीजों को अपनाना घातक हो सकता है जिनका कृषि संस्थानों द्वारा पूरी तरह परीक्षण न कर लिया गया हो। सरकारी प्रतिबंध के बावजूद इन बीजों की बाजार में खुली उपलब्धता प्रशासनिक लापरवाही है। समय रहते ऐसी कंपनियों पर सख्त कार्रवाई करना देशहित में होगा।

                       के.सी. त्यागी
(लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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